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अधिकारीसे मिलनेके लिए जाना चाहते थे, रास्ता रोक दिया था। मैं इसे "जंगली तरीका" इसलिए कहता हूँ कि यह दबाव डालनेका बड़ा ही भद्दा तरीका है। मैं इसे कायरतापूर्ण भी कहता हूँ क्योंकि धरना देकर बैठनेवाला इस बातको अच्छी तरह जानता है कि कोई भी उसे कुचलकर आगे नहीं जायेगा। इस तरीकेको हिंसात्मक कहना तो जरा मुश्किल है, लेकिन यह है उससे भी बुरा। अगर हम अपने विरोधीसे लड़ते और हाथापाई करते हैं तो कमसे-कम उसे हाथ चलानेका मौका तो देते हैं। लेकिन यह जानते हुए भी कि वह हमारे ऊपर पैर रखकर आगे नहीं जायेगा, हम उसे वैसा करनेकी चुनौती देते हैं तो वह उसको नीचा दिखानेवाली बड़ी ही मुश्किल हालतमें पड़ जाता है। मैं ऐसा मानता हूँ कि जिन विद्यार्थियोंने बहुत जोशमें आकर धरना दिया उन्होंने कभी यह सोचा भी नहीं होगा कि उनका यह काम बर्बरतापूर्ण है। लेकिन जिस व्यक्तिसे आत्माकी आवाजपर चलने और मुसीबतोंसे अकेले भी जूझनेकी उम्मीद की जाती है वह बिना विचारे कुछ कर ही कैसे सकता है। असहयोग अगर नाकामयाब रहा तो वह असहयोग करनेवालोंकी कमजोरीकी ही वजहसे नाकामयाब होगा, वर्ना असहयोगमें हार नामकी कोई चीज है ही नहीं। वह कभी नाकामयाब नहीं होता। नामधारी असहयोगी असहयोगके पक्षको इतनी बुरी तरह पेश कर सकते हैं कि देखनेवालोंको यही लगे कि असहयोग नाकामयाब हो गया। इसलिए असहयोगियोंको, वे जो-कुछ भी करें, उसके बारेमें सतर्क और सावधान रहना चाहिए। जरा भी जल्दबाजी, बर्बरता और जंगलीपन, गुस्ताखी और बेजा दबाव, और जोर-जुल्म नहीं होना चाहिए। अगर हमें सच्चा जनवाद कायम करना है, तो हम असहिष्णु हो ही कैसे सकते हैं? असहिष्णुता तो अपने उद्देश्यमें आस्थाकी कमीको ही दरसाती है।

हिन्दुस्तानी सीखनेकी जरूरत

मैंने हरएक विद्यार्थीको यह सलाह दी है कि वह हमारी परीक्षाके इस एक सालमें सूत काते और हिन्दुस्तानी सीखे। मैं कलकत्ताके विद्यार्थियोंका आभारी हूँ कि मेरे सुझावके प्रति उन्होंने बड़ी अनुकूल प्रतिक्रिया दिखाई। बंगाल और मद्रास, ये दो ऐसे प्रान्त हैं जो बाकी सारे देशसे इसलिए कटसे गये हैं कि वहाँवाले हिन्दुस्तानी नहीं जानते। बंगाल तो इसलिए नहीं जानता कि वहाँवाले हिन्दुस्तानकी कोई भी दूसरी भाषा सीखनेके सख्त खिलाफ हैं; और मद्रास इसलिए कि मद्रासियोंको हिन्दुस्तानी मुश्किल पड़ती है। औसत बंगाली अगर रोज तीन घंटे लगाये तो बड़े मजेसे दो महीनेमें हिन्दुस्तानी सीख सकता है और मद्रासी इसी गतिसे छः महीनेमें, जब कि इतने ही समयमें औसत बंगाली या औसत मद्रासी इतनी अंग्रेजी नहीं सीख सकता। अंग्रेजीके जरिये हम देशके सिर्फ मुट्ठी-भर अंग्रेजी जाननेवाले भारतीयोंसे मिल-जुल सकते हैं, जबकि हिन्दुस्तानीका काम-चलाऊ ज्ञान प्राप्त करके अधिकांश लोगों से मिलजुल सकते हैं। मैं उम्मीद करता हूँ कि कांग्रेसके अगले अधिवेशनमें[१] बंगाली और मद्रासी भाई हिन्दीका कामचलाऊ ज्ञान हासिल करके आयेंगे। जिस भाषाको देशके

  1. यह अधिवेशन दिसम्बर १९२१ में अहमदाबादमें होनेवाला था।