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१५५. कताई, एक कर्त्तव्य

"स्वराज्यका गुर" शीर्षक लेखमें[१] मैंने यह बतानेकी कोशिश की है कि घर-घर कताई करनेका हमारे देशके लिए कितना महत्व है। भविष्यमें विद्यार्थियोंके लिए जो भी पाठ्यक्रम बने उसमें कताई एक अनिवार्य विषय रहना ही चाहिए। जिस प्रकार इम साँस लिये और खाना खाये बिना जिन्दा नहीं रह सकते, उसी प्रकार हर घरमें कताईको पुनरुज्जीवित किये बिना हम न तो स्वराज्य हासिल कर सकते हैं और न इस पुरातन देशसे गरीबीको ही मिटा सकते हैं। मैं तो हर घरके लिए चरखेको उतना ही जरूरी समझता हूँ जितना कि चूल्हेको। दूसरी कोई भी योजना लोगोंकी दिनों-दिन बढ़ती हुई गरीबीको मिटा नहीं सकती।

अब सवाल यह है कि घर-घरमें कताई किस तरह शुरू करवाई जाय? मैं बता ही चुका हूँ कि हर राष्ट्रीय स्कूलमें कताई और बाजाब्ता सूतका उत्पादन जारी कर देना चाहिए। एक बार हमारे लड़के-लड़कियाँ इस कलाको सीख-भर जायें फिर तो बड़ी आसानीसे वे इसे अपने घरोंमें भी चालू करवा सकेंगे।

लेकिन इसके लिए संगठनकी जरूरत है। हर दिन बारह घंटे चरखा चलाया जाना चाहिए। होशियार कातनेवाला घण्टे-भरमें ढाई तोला सूत कात सकता है। आजकल चालीस तोला या एक पौंड सुतकी औसत कीमत चार आने है, यानी कि फी घंटा एक पैसा हुआ। इसलिए एक चरखेसे रोजाना तीन आनेका सूत तो निकलना ही चाहिए। अच्छे मजबूत चरखेकी कीमत सात रुपये है। अगर रोज बारह घंटे उसपर काम किया जाये तो उसकी पूरी कीमत ३८ दिनसे कममें ही निकल सकती है। हिसाब लगानेके लिए मैंने काफी आँकड़े दे दिये हैं। इन आँकड़ोंके आधारपर कोई भी हिसाब लगाकर देख सकता है। उसके नतीजे उसे चमत्कारिक ही लगेंगे।

अगर हर स्कूल अपने यहाँ चरखा लागू कर दे तो उससे शिक्षाके खर्चके बारेमें हमारे विचारोंमें क्रांतिकारी तब्दीलियाँ हो जायेंगी। हम हर दिन छः घंटे स्कूल लगाकर विद्यार्थियोंको मुफ्त शिक्षा दे सकते हैं। मान लीजिए एक लड़का रोज चार घंटे चरखा चलाता है तो वह प्रति-दिन दस तोला सुत तैयार करेगा और इस तरह अपने स्कूलके लिए रोजाना एक आना कमा लेगा। यह भी मान लिया जाये कि पहले महीने उसका उत्पादन बहुत कम होगा और पूरे महीनेमें सिर्फ छब्बीस दिन ही स्कूल लगेगा, तो भी पहले महीनेके बादसे वह एक रुपया दस आने तो कमा ही सकता है। इस हिसाबसे तीस लड़कोंवाली कक्षासे पहले महीनेके बाद ४८ रुपए, १२ आने माहवारकी आमदनी होने लगेगी।

किताबी पढ़ाईके बारेमें मैंने कुछ नहीं कहा है। छः घंटोंमें से दो घंटे इसके लिए दिये जा सकते हैं। इस तरह हर स्कूलको आसानीसे आत्मनिर्भर बनाया जा सकता है और राष्ट्र अपने स्कूलोंके लिए अनुभवी शिक्षकोंको नियुक्त कर सकता है।

  1. देखिए "स्वराज्यका गुर", १९–१–१९२१ ।