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सनातनी हिन्दू कौन है?

और भी दृढ़ बनानेकी दिशामें प्रयत्न किया करता हूँ। इससे मैं अपने आपको विनम्र भावसे लेकिन दृढ़तापूर्वक एक कट्टर सनातनी हिन्दू और वैष्णवके रूपमें पहचाने जानेमें कोई संकोच नहीं करता। मेरी धारणा है कि हिन्दू-धर्मका सबसे महत्वपूर्ण बाहरी स्वरूप गोरक्षा है। इस गोरक्षामें आज हिन्दू-मात्र असमर्थ हो गया है। इसीसे हिन्दू समाजको मैं आज नपुंसक मानता हूँ और उसमें अपनेको सबसे कम। जो तपश्चर्या मैंने गोरक्षाके लिए की है और कर रहा हूँ, मुझे गाय तथा गो-वंशसे जो सहानुभूति है मैं नहीं समझता उससे अधिक किसी औरको होती होगी। मैं किसी ऐसे व्यक्तिको नहीं जानता जिसने गोरक्षाकी खातिर सोच-समझकर मेरे जितनी तपश्चर्या की हो। पशुओंको स्वयं हिन्दू ही अनेक प्रकारके दुःख देते हैं। जबतक हिन्दुस्तानमें हिन्दू गायके ऊपर दया- भाव नहीं रखते, मुसलमानोंकी प्रीति सम्पादन करके प्रेमकी खातिर उनसे गोवध बन्द करवा लेतेमें समर्थ नहीं होते, अंग्रेज हिन्दुस्तानमें जो गोवध कर रहे हैं उसको सहन करते हुए ब्रिटिश-साम्राज्यको सलामी देते हैं तबतक मैं समझता हूँ कि हिन्दू-धर्ममें ब्राह्मण और क्षत्रिय धर्मका लोप हो गया है। इसी कारण मैं वैश्य परिवारमें जन्म लेनेके बावजूद इन दोनों धर्मोका पालन करनेका सतत प्रयत्न कर रहा हूँ।

मेरे मतानुसार हिन्दू-धर्मका आन्तरिक स्वरूप सत्य और अहिंसा है। मैं बचपनसे ही सत्यका जिस सूक्ष्मताके साथ सेवन कर रहा हूँ उतना मैंने अपनी जान-पहचानके किसी व्यक्तिको करते हुए नहीं देखा। अहिंसाका जाग्रत लक्षण प्रेम—वैरका न होना है। मुझे दृढ़ विश्वास है कि मैं प्रेमसे पूर्णतः आप्लावित हूँ। मुझे स्वप्नमें भी किसीके प्रति द्वेष-भाव उत्पन्न नहीं हुआ है। डायरके दुष्कृत्योंके बावजूद उसके प्रति मेरे मनमें वैर-भाव नहीं है। जहाँ-जहाँ मुझे दुःख दिखाई दिया, अन्याय नजर आया वहाँ-वहाँ मेरी आत्मा कराह उठी है।

हिन्दू_धर्मका तत्त्व मोक्ष है। मोक्षके लिए मैं निरन्तर प्रयास कर रहा हूँ। मेरी सारी प्रवृत्तियाँ मोक्षकी खातिर हैं। अपने देहके अस्तित्व और उसके क्षणभंगुर होनेके सम्बन्धमें मुझे जितना विश्वास है उतना ही आत्माके अस्तित्व तथा उसके अमरत्वके सम्बन्धमें है।

इन्हीं कारणोंसे मैं अपने-आपको कट्टर सनातनी हिन्दू मानकर सुखका अनुभव करता हूँ।

शास्त्रोंका मैंने गहरा अध्ययन किया है या नहीं, अगर कोई यह प्रश्न मुझसे पूछे तो मैं उससे कहूँगा, किया है और नहीं भी किया है; एक विद्वानके रूपमें मैंने उनका अध्ययन नहीं किया। मेरा संस्कृत-सम्बन्धी ज्ञान नहींके बराबर है। भाषामें मिलनेवाले अनुवादोंको भी मैंने बहुत कम पढ़ा है। एक भी 'वेद' मैंने पूरी तरहसे पढ़ा है, ऐसा दावा मैं नहीं कर सकता। तथापि धर्मकी दृष्टिसे मैंने शास्त्रोंको अवश्य जाना है। उनमें निहित रहस्यको मैं जान गया हूँ। 'वेद' पढ़े बिना भी मनुष्य मोक्षकी प्राप्ति कर सकता है, इस बात से मैं अनभिज्ञ नहीं हूँ।

शास्त्र पढ़नेकी, समझनेकी कुंजी मेरे हाथ लग गई है। जो शास्त्र-वचन सत्य अहिंसा और ब्रह्मचर्यका विरोधी हो वह चाहे कहींसे भी क्यों न मिला हो, अप्रामाणिक