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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

है। शास्त्र बुद्धिसे परे नहीं है; जो शास्त्र बुद्धिगम्य न हों उन्हें हम ताकपर रख सकते हैं। मैं सारे उपनिषदोंको पढ़ गया हूँ। मैंने ऐसे उपनिषद् भी पढ़े हैं जिनके कुछ अंश मुझे बुद्धिगम्य नहीं जान पड़े हैं। इस कारण मैंने उन्हें आधारभूत ग्रन्थ नहीं माना है। शास्त्रोंका अक्षरशः पालन करनेवाला व्यक्ति कोरा पडिप्त है ऐसा अनेक कवियोंने कहा है। शंकराचार्य आदिने एक-एक वाक्यमें शास्त्रोंका दोहन किया है और उन सबका तात्पर्य यह है कि हम ईश्वर-भक्तिके द्वारा ज्ञान प्राप्त करें और उससे मोक्षकी प्राप्ति करें। अखा भगतने कहा है कि :

जैसा भावे वैसे रहो

जैसे-तैसे हरिको लहो।[१]

जो शास्त्र मदिरापान, मांसभक्षण और पाखण्ड इत्यादि सिखाता है, उसे मैं शास्त्र नहीं कह सकता।

स्मृतियोंके नामपर घोर अधर्म हो रहा है। स्मृति आदि ग्रन्थोंका अक्षरशः पालन करनेके प्रयत्नमें हम अपने आपको नरकके काबिल बनाते हैं। स्मृतिसे भ्रममें पड़कर अपनेको हिन्दू कहनेवाला व्यक्ति व्यभिचार करता है और छोटी-छोटी लड़कियोंपर बलात्कार करने और करवानेके लिए तैयार रहता है।

आज हमारे सामने यह विकट प्रश्न है कि इन सब शास्त्रोंमें से हम किसे क्षेपक मानें; किसे ग्राह्य और किसे त्याज्य समझें। जितना कुछ मैंने ऊपर बताया है अगर आज उस प्रमाणमें ब्राह्मण धर्मका लोप न हुआ होता तब तो हम किसी ऐसे ब्राह्मणसे पूछ कर जो यम-नियम आदिके पालनसे शुद्ध हो गया हो और जिसने अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया हो, इसे जान लेते। ज्ञानके अभावमें भक्ति प्रधान हो जाती है। पाखण्ड, दम्भ, मद और माया आदि पाप जो वर्तमान सरकारमें अनेक रूपसे प्रकट हो रहे हैं उसके साथ असहयोग करके हम जब आत्मशुद्धि प्राप्त करेंगे तब कदाचित् हमें शास्त्रोंका सार देनेवाला कोई ज्ञानी पुरुष मिल जायेगा। तबतक हम प्राकृत लोग सरल भावसे मूल तत्त्वोंका पालन करते हुए और हरिभक्ति करते हुए इस संसारमें विचरण करें। इसके अलावा मुझे कोई और मार्ग नहीं सूझ पड़ता।

'गुरु बिन ज्ञान न होय' यह स्वर्ण वाक्य है। लेकिन गुरु मिलना ही कठिन है और सद्गुरुके अभावमें किसीको भी गुरु मान बैठनेका मतलब होगा संसार-सागरमें डूब जाना। गुरु वह है जो पार लगाये। जो स्वयं तैरना नहीं जानता वह औरोंको क्या पार लगायेगा? सच्चे गुरु आजकल हों भी तो एकाएक देखनेमें नहीं आते।

आइये, अब हम वर्णाश्रमपर विचार करें। मैंने तो हमेशासे यही माना है कि चार वर्णोंके बाद फिर कोई वर्ण नहीं है। मेरी मान्यता है कि वर्ण जन्मजात ही होता है। ब्राह्मण कुलमें जन्म लेनेवाला ब्राह्मण रहकर ही मरता है, कर्मसे भले ही वह अब्राह्मण हो लेकिन ब्राह्मण देह नहीं मिटता। ब्राह्मण धर्मका पालन करनेवाला ब्राह्मण अपने कर्मानुसार क्षुद्रयोनि और पशुयोनि में जन्म लेता है। मेरे जैसा ब्राह्मण और

  1. सुतर आवे तेम तुं रहे;
    जेम तेम करीने हरिने लहे।