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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

पैदा करना होगा। हमें पहला काम यह करना होगा कि हमने अबतक जो-कुछ सीखा है उसमें से बहुत-कुछको हम भुला दें और अपनी महान प्राचीन संस्कृतिके अनुसार जीवन व्यतीत करनेका प्रयत्न करें। यदि मेरा कोई वकील मित्र वकालत छोड़नेसे इनकार करता है तो हमारा यह कर्त्तव्य नहीं है कि हम उससे यह जवाब-तलब करें कि उसने श्री हकका अनुकरण क्यों नहीं किया। झरियामें एक वकील हैं। मैंने उनसे सहज भावसे वकालत छोड़नेके लिए कहा, श्री मुहम्मद अलीने भी उनसे यही प्रार्थना की; और परिणामस्वरूप कदाचित् अबतक वे अपनी वकालत छोड़ चुके हैं। लेकिन यदि उन्होंने अपनी वकालत न भी छोड़ी हो तो भी वे देशके शत्रु कदापि नहीं हैं। वे हृदयसे ऐसे ही सच्चे हैं जैसे हम। यदि सच्चा मतभेद होनेसे या पर्याप्त साहस न होनेसे हमारे मित्र आज हमारा साथ नहीं दे पाते हैं तो वे हमारी घृणाके पात्र नहीं समझे जा सकते।

चरखेके सम्बन्धमें उन्होंने कहा : हमें चरखेका महत्व कम नहीं आँकना चाहिए। चरखा चलाना पंजाब और खिलाफतके अन्यायोंका निराकरण करना है। ये दोनों बातें एक-दूसरेसे बंधी हुई हैं। सच्चे हृदयसे चरखा चलानेपर ही हम देशके सच्चे सिपाही बन सकेंगे। चरखा तो अशिक्षित लोग भी चला सकते हैं। लेकिन मैं चाहता हूँ कि हम लोगोंमें जो पढ़े-लिखे हैं वे चरखा चलायें और यह अनुभव करें कि वे जितना ज्यादा सूत कातेंगे, देश उतना ही आगे बढ़ेगा। अभीतक तो हम सब जबानसे ही काम लेते रहे हैं; मैं चाहता हूँ कि अब हम अपने हाथोंसे भी काम लें, किन्तु तलवार उठानेके लिए नहीं बल्कि चरखा चलानेके लिए। यदि आप इतना कर सकें कि एक भी भारतीय विदेशोंमें बने हुए कपड़े और विदेशी सूतसे तैयार किये हुए कपड़े न पहने तो आप धीरे-धीरे अपने भीतरको शक्तिको महसूस कर सकते हैं और यह समझने लग सकते हैं कि हमें अब स्वराज्य मिलनेवाला है। आगे चलकर उन्होंने कहा : मुझे छोटी-छोटी लड़कियोंने कुछ जेवर दिये हैं। बंगालमें बहुत-सी महिलाओंने यह वचन दिया है कि वे सूत कातेंगी। न्यायमूर्ति श्री पी॰ आर॰ दासकी[१] लड़कियोंने चरखा चलाना और खद्दर पहनना आरम्भ कर दिया है। बंगालमें मेरे पास लड़कियाँ और विवाहित युवतियाँ आईं थीं। उन्होंने मुझसे कहा कि चूँकि स्वराज्यके बिना उनकी स्थिति विधवाओं-जैसी है इसलिए वे जेवर नहीं पहनेंगी। मैं चाहता हूँ कि इस समयकी स्थितिको सभी इन लड़कियों और युवतियोंकी तरह मानें। गांधीजीने इसके बाद घोषणा की कि वे हालमें जब झरिया गये थे तो वहाँ उनको राष्ट्रीय विश्वविद्यालयके लिए ६०,००० रुपये मिले थे। रकमका अधिकांश गुजरातियों, बंगालियों और मारवाड़ियोंने दिया। इसी निमित्त वो हजारको रकम कटरसके एक बंगाली जमींदारने दी। प्रायः ये सभी दानी सज्जन बिहारके बाहरके हैं और फिर भी उन्होंने इतनी बड़ी-बड़ी रकमें इसलिए दी हैं क्योंकि वे यह अनुभव करने लगे हैं कि राष्ट्रीय विश्वविद्यालय यद्यपि

  1. चित्तरंजन दासके भाई; पटना उच्च न्यायालयके न्यायाधीश।