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भाषण : बनारसमें

हमारी ताकतका पतन होता है। फैजाबादके किसानोंका पागलपन और बम्बईके विद्याथियोंकी करनीसे मैं निहायत असन्तुष्ट हूँ। विद्यार्थियोंने श्री शास्त्री और परांजपेका अपमान करके बड़ी भूल की। दोनों बड़े ही योग्य व्यक्ति और मेरे समान देश-सेवक हैं। हम लोगोंमें मतभेद है, पर देश-सेवाका उन्हें भी उतना ही अभिमान है जितना हमें है। यदि आज आप लोग यहाँ एकत्रित न हुए होते तो मुझे दुःख न होता। पर यहाँ आकर गोलमाल करें, शोरगुल मचाकर बाधा डालें तो यह कितने दुःखकी बात होगी? मेरी समझमें नहीं आता कि यह कैसे होता है। सभामें आनेके बाद विघ्न नहीं डालना चाहिए। जो विघ्न डालता है वह सज्जन नहीं है। मुझे बाध्य होकर कहना पड़ता है कि बम्बईके छात्रोंने अपने खानदानकी मर्यादा त्याग दी, कांग्रेस और खिलाफतके हुक्मकी अवज्ञा की। यदि आप हमारी बातको मानना चाहते हैं तो आपको यही सबक सीखना चाहिए। यदि आप किसी दूसरेसे अपना काम कराना चाहते हैं और वह आपके मनके माफिक करनेपर राजी नहीं होता तो आप जबरदस्ती न करें; मेरी इस शर्तको याद रखिए। मैं एक वर्षमें अर्थात् सितम्बर तक पूर्ण स्वराज्य चाहता हूँ। वह स्वराज्य केवल शान्ति रखनेसे मिल सकता है। बिना इस ताकतके स्वराज्य मिलना असम्भव है। लोग कहते हैं कि मैं शान्ति भंग नहीं करना चाहता पर सरकार और खुफियावाले हम लोगोंको इसके लिए बाध्य करते हैं। मैं कहता हूँ यह पागलपनकी बात है। मैं आप लोगों कहूँ कि अपना दीन छोड़ दीजिए तो क्या आप इसके लिए तैयार हैं? कभी नहीं। इसी तरह जब हम किसी बातको करनेके लिए तैयार नहीं हैं, तो सरकार हमसे वैसा कुछ नहीं करा सकती। गुस्सेमें तो कुछ भी नहीं करना चाहिए। क्रोध किया तो स्वराज्य नामुमकिन है। मैं सब बातें छोड़ देनेके लिए तैयार हूँ——वकीलोंका प्रश्न न उठाऊँ, छात्रोंको न छेडूँ, पर मैं शान्ति कभी नहीं छोड़ सकता। जब हम परदेशी राज्य नहीं चाहते तो हमें परदेशी लिबास भी छोड़ देना चाहिए। साथ ही हमें विदेशी वस्त्र भी त्याग देने चाहिए। यदि हम लोग यह नहीं कर सकते तो एक क्या, दस बरसोंमें भी स्वराज्य नहीं मिल सकता। हमें अधिक संख्याकी आवश्यकता नहीं है। जो थोड़े लोग त्याग कर रहे हैं उतने ही काफी हैं। पं॰ मोतीलाल नेहरू, श्री दास तथा लाला लाजपतरायने वकालत छोड़ दी। अब और क्या चाहिए? दूसरे भी धीरे-धीरे छोड़ेंगे। किसीके साथ किसी तरहकी जबरदस्ती न की जाये। जिनकी आत्मा गवाही दे, वे ही छोड़ें। संस्कृतके विद्यार्थी हमसे पूछते हैं कि उनका क्या कर्त्तव्य है। अब कर्त्तव्यका प्रश्न नहीं रहा। सरकारी विद्यालयोंका त्याग ही एक-मात्र कर्त्तव्य है। जबतक हमारे दुःखोंका प्रतिकार न किया जाये तबतक सरकारी विद्यालय हराम हैं। स्वदेशी वस्त्रका प्रचार भी अत्यावश्यक है। इसके लिए चरखोंका प्रचार करना चाहिए। यदि विद्यार्थी विद्यालयोंका बहिष्कार करके देशकी सेवामें जुटना चाहते हैं तो चरखके प्रचारसे बढ़कर कोई दूसरा काम हो ही नहीं सकता। उन्हें फौरन चरखा ग्रहण करना चाहिए। यदि ५० लाख विद्यार्थी ४ घंटा यही काम करें तो कितना काम हो सकता है। प्रत्येक विद्यार्थी इतना सूत कात सकता है कि चार दिनमें एक धोती तैयार हो सकती है; अर्थात् सारे विद्यार्थी मिलकर एक दिनमें साढ़े बारह लाख धोतियाँ