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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

अन्त्यजोंके सम्बन्धमें

इस विषयमें मुझे अनेक पत्र प्राप्त हुए हैं जिनमें मुझे सलाह दी गई है। ये सब प्रकाशित नहीं किये जा सकते। इनमें दलीलकी अपेक्षा डाँट-डपट कहीं अधिक है। कुछ पत्रोंमें मेरे विचारोंसे मिलते-जुलते विचार दिये गये हैं। उनमें प्रकाशित करने लायक कुछ है ही नहीं। जो लोग मेरे विचारोंसे विरुद्ध तर्क देते हैं उन्हींको समझाना रह जाता है। एक युवकने लिखा है कि अन्त्यजोंके प्रश्नको उठाकर मैंने असहयोग-जैसे रामबाण अस्त्रको निस्तेज कर दिया है। इस भाईका कहना है कि अन्त्यज स्पृश्य हो तो भी इस विषयपर विचार करना समयोचित नहीं है। उसका एक परिणाम तो यह हुआ है कि एक स्कूल वापस सरकारको मिल गया। वह कहता है कि अन्तमें सब 'सनातनी' सरकारका पक्ष लेकर मुझसे अथवा असहयोगके प्रति अपना वैर निकालेंगे। मुझे ऐसा भय नहीं है। मुँहसे बैर निकालनेके लिए अपनी नाक काट डालनेवाले लोग कहीं भी बहुत नहीं होते। हिन्दुस्तानमें ऐसे लोग बहुत ज्यादा नहीं हैं; ऐसा मैं मानता हूँ। जो इस समय इस आन्दोलनका विरोध कर रहे हैं उनमें कुछ लोग तो सचमुच ही मानते हैं कि यदि हम अन्त्यजोंका स्पर्श करेंगे तो हिन्दू-धर्मका लोप हो जायेगा। [लेकिन] ये लोग धीरे-धीरे समझ जायेंगे कि अस्पृश्यताको सम्मान देनेके कारण ही हिन्दू-धर्मकी अधोगति हुई है। तथापि हम कल्पना करें कि अस्पृश्यता सम्बन्धी आन्दोलनसे असहयोगको धक्का पहुँचता है। इसका अर्थ यह हुआ कि असहयोग ही असहयोगके मार्गमें विघ्न बनकर आता है। अनेक लोग कहते थे कि कार्यक्रमके वकीलों और स्कूलोंसे सम्बन्धित भागके कारण असहयोग आन्दोलन समाप्त हो जायेगा। हकीकत यह है अस्पृश्यतासे चिपके रहनेसे असहयोग आन्दोलन कभी पूरा नहीं हो सकता। और फिर यदि सनातनी हिन्दू अस्पृश्यताको बनाये रखनेके लिए सरकारसे सहयोग करेंगे तो भी असहयोगी उनसे न डरें। सनातनी भी सरकारको त्याज्य मानते हैं और उसकी निन्दा करते हैं। इस समय तो सरकार स्वयं अस्पृश्य है। यह सम्भव नहीं है कि उसका स्पर्श करते हुए 'सनातनी' अस्पृश्यताको बनाये रख सकें। असहयोग यदि आत्मशुद्धि है तो हमें परिणामका विचार किये बिना असहयोगका विकास करना है। फिर यदि एक भी असहयोगी रह जायेगा तो उसकी मार्फत हमें विजय प्राप्त होगी। इसके अलावा विचारने योग्य बात तो यह है कि यदि हम अस्पृश्योंको भूल जायें तो यह पाप हमें पीड़ा देगा, इतना ही नहीं, बल्कि सरकार उसका दुरुपयोग भी करेगी।

पारसियोंकी मदद

डाभोलसे भाई सेठनाने एक लम्बा पत्र लिखा है और कहा है: पारसियोंपर यह आरोप लगाया जाता है कि वे असहयोग आन्दोलनमें शामिल नहीं हैं; यह सच नहीं है। उनका कहना है कि पारसियोंको जैसे-जैसे हिन्दुओं और मुसलमानोंकी दृढ़ताका विश्वास होता जायेगा वैसे-वैसे वे असहयोगमें शामिल होते जायेंगे। मेरी भी ऐसी ही मान्यता है। सब पारसी असहयोगसे अलग रहते हैं यह बात तो कोई नहीं कह सकता। लेकिन हाँ, उनकी संख्या बहुत कम होनेकी वजहसे वे प्रकाशमें नहीं आते। यह सच है कि कौमके रूपमें पारसियोंने इस आन्दोलनमें भाग लिया——ऐसा नहीं