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भाषण : काशी विद्यापीठके शिलान्यासके अवसरपर

कहा जा सकता। यदि असहयोगी शान्ति, विनय और सत्यका पालन करते हुए स्वार्थ त्याग करते रहेंगे तो पारसी और अन्य लोग जो इस आन्दोलनसे बाहर हैं, इसमें सम्मिलत हुए बिना नहीं रहेंगे।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, १०–२–१९२१

 

१७१. भाषण : काशी विद्यापीठके शिलान्यासके अवसरपर[१]

१० फरवरी, १९२१

बाबू भगवानदास, बहनो और भाइयो,

मेरे मनमें इस समय एक बातका दुःख है। उसे मैं किसी तरह आप लोगोंसे छिपा नहीं सकता। यहाँ आनेके पहले मैं अपने भाई साहब पं॰ मदनमोहन मालवीयके पास गया और उनसे पूछा कि आप विद्यापीठके आरम्भोत्सवमें आ रहे हैं या नहीं। उन्होंने कहा, नहीं; मेरा वहाँ न जाना ही अच्छा होगा। वे हमारे कितने घनिष्ठ हैं मैं बतला नहीं सकता। आज वे हमारे साथ नहीं हैं। उनको आज यहाँ न देखना हमारे लिए कितने दुःखकी बात है, यह मैं कह नहीं सकता। पर हमारी लड़ाई ऐसी है कि हमें ये सब दुःख बरदाश्त करने होंगे। पिताको पुत्रके, पतिको पत्नीके, पत्नीको पतिके वियोगका दुःख सहना पड़ेगा। बाबू भगवानदासने सुमधुर शब्दोंमें बतलाया है कि यह लड़ाई धर्म-युद्ध है। मुझे इस बातमें जरा भी संशय नहीं रह गया है, नहीं तो मैं उस संस्थाको कभी न छूता जिसके प्राण मालवीयजी हैं। मेरी आत्मा यही कहती है कि या तो वह संस्था मेरी हो जाये या नष्ट हो जाये। यदि मैं ऐसा नहीं करूँ तो यह पाप होगा। कल मेरे पास कानपुरके कई विद्यार्थी आये। वे वहाँसे पढ़ाई छोड़-छाड़कर आये हैं। मैंने उनसे पूछा, आप लोग पढ़ना छोड़कर क्यों आये। उन्होंने उत्तर दिया, हम लोग चाहते हैं कि इससे बढ़कर कोई अच्छा राष्ट्रीय काम करें। मैंने उनसे कहा, यह सबब अच्छा नहीं। यदि आप इस खयालसे पढ़ाई छोड़कर आये होते कि आप सरकारी सहायतासे चलनेवाले विद्यालयोंमें पढ़ना पाप समझते हैं तो अधिक लाभ होता। मेरी बातको वे कुछ समझ गये पर उनकी मुखाकृतिसे स्पष्ट झलकता था कि उनके हृदयमें अभी कुछ संशय रह गया है, क्योंकि उन्होंने प्रश्न किया कि परीक्षाके केवल दो ही मास रह गये हैं अतः यदि हम लोग उपाधि लेकर असहयोग करें तो अच्छा है। मैंने कहा कि यह ठीक नहीं; जब हमें निश्चय हो गया कि इन विद्यालयोंमें शिक्षा लेना पाप है तो इसे त्यागना ही उचित होगा। यही तर्फे-मवालात है। हमारे बिस्तरेके नीचे पचासों वर्षसे साँप छिपा है। हमें उसका पता नहीं। आज हमें एकाएक इसका पता लगता है। हम उस बिस्तरेपर अब नहीं रह सकते। चाहे हमारे पिता उसको छोड़नेके लिए

  1. इस राष्ट्रीय विश्वविद्यालयको स्थापना बनारसमें बाबू भगवानदास तथा बाबू शिवप्रसाद गुप्त की थी।

१९–२३