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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

हमें मना करें, चाहे नाराज हों, हम उस बिस्तरेपर रह नहीं सकते। मैं पिताकी वह आज्ञा नहीं मान सकता, क्योंकि पिताको तथ्य मालूम नहीं है। उस बिस्तरेपर मैं शान्त नहीं रह सकता। यही खयाल करके विद्यालयोंको छोड़िए; यह समय परीक्षाका प्रश्न उठानेका नहीं है।

यही बात हमें यहाँके विद्यार्थियोंसे भी कहनी है। कल मुझे अपने भाई एन्ड्र्यूजको पत्र मिला। उन्होंने लिखा है कि जिस तरह यह काम चल रहा है उस तरहसे तो सफलताकी आशा उन्हें गुजरातमें भी नहीं है, जो मेरा घर है। पर दो स्थानोंके लिए वे निश्चिन्त हैं——पटना और काशी। पटनामें इसका भार बाबू राजेन्द्र प्रसादपर और काशीका भार बाबू भगवानदासपर है। सबको पूरा एतवार है कि ये काम बिगाड़ेंगे नहीं। बाबू भगवानदासने शिक्षाके लिए बहुत काम किया है। अन्य प्रान्तोंके काम करनेवालोंमें राजनैतिक प्रवृत्ति अधिक है, इसीलिए वे शिक्षामें भी भाग ले रहे हैं। काशी और पटनाके लिए मैं भी निश्चिन्त हूँ। पर श्री एन्ड्र्यूजको उत्तरमें मैं यह कहना चाहता हूँ कि और स्थानों में भी यह काम राजनीतिकी दृष्टिसे नहीं किया जा रहा है; धार्मिक दृष्टिसे किया जा रहा है। हम लोगोंको असहयोगको सफल करनेमें अपना चित्त रखना चाहिए। हम लोग विद्या भी ऐसी ही चाहते हैं कि एक वर्षमें स्वराज्य प्राप्त हो सके। यह भी विचार करनेकी बात है कि स्वराज्य कैसे मिल सकता है। सरकारी सहायतासे चलनेवाले विद्यालयोंका त्याग सम्भव है। लोग कहते हैं कि सरकारकी कृपासे मिलनवाले अनाजका त्याग हम क्यों नहीं कर देते। मैं इससे सहमत हूँ। पर यह सहज नहीं है। विद्या तो अन्य स्थानोंमें भी मिल सकती है। बाबू भगवानदासने अभी सीता-हरणकी कहानी सुनाई। भूमिका स्वामित्व हमारे हाथमें नहीं है। वह अपरिहार्य है। अपरिहार्यको परिहार्य न करना क्षम्य है। पर शिक्षा अपरिहार्य नहीं। यदि उसको छोड़ देनेपर बदलेमें कुछ भी न मिले तो भी हमें सरकारी विद्यालय छोड़ देना चाहिए। आज हमको रावण राज्यके नेता क्या सुनाते हैं। वे कहते हैं, हम आपको साथ रखकर चलना चाहते हैं। बर्मासे क्रेडॉक साहब कहते हैं कि हम शस्त्र नहीं चलाते। हमको उन्हें कह देना चाहिए कि हम आपके साथ नहीं रहना चाहते; मजबूरीसे आपका साथ दे रहे हैं। अली भाइयोंका कहना है कि यदि हमें यहाँ 'कुरान' पढ़नेके लिए भी हृदयकी शुद्धता नहीं मिल सकती तो हमें हिजरत करना चाहिए, अर्थात् उन्होंने राज्यका त्याग करनेके लिए कहा है। तुलसीदासने भी मलिन राज्यका त्याग करनेके लिए कहा है। पर हम अभी उसका सर्वथा त्याग नहीं कर रहे हैं, सत्ताको भी अभी मौका देंगे। हम अपने चित्तको समझायेंगे कि क्या इस राज्यको मिटाने या दुरुस्त करनेका कोई दूसरा उपाय नहीं है। यदि है तो ३० करोड़ लोगोंके हिजरत करनेकी क्या आवश्यकता है। थोड़ा यज्ञ ही काफी है। इसीलिए इस विद्यापीठकी स्थापना हो रही है। हमें विद्या-जैसे पुण्यदानको मलिन हाथोंसे नहीं लेना चाहिए। जितने विद्यालय सरकारके असरमें हैं, उनसे हमें विद्या नहीं लेनी चाहिए। जिस विद्यालयपर उसकी ध्वजा फहराती है, वहाँ विद्यादान लेना पापकर्म है। आप सबको निमन्त्रण है कि यदि आप उसे पाप समझते हैं तो यहाँ चले आइए। केवल इस खयालसे न आइए