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भाषण : काशी विद्यापीठके शिलान्यासके अवसरपर

कि वहाँ शिक्षा बुरी है और यहाँ अच्छी मिलेगी। इससे आपको पश्चात्ताप होगा। वहाँकी शिक्षाकी बुराई हम भी मानते हैं। एक तो वहाँ अंग्रेजीमें शिक्षा दी जाती है। अंग्रेजी हमारी मातृभाषा नहीं है। हमारी राष्ट्रीय भाषा हिन्दुस्तानी है, जिसे २१ करोड़ आदमी बोलते हैं। अंग्रेजीको हम मातृभाषाका स्थान नहीं देना चाहते, पर उसे त्यागना भी नहीं चाहते। वह बड़ी ओजस्वी भाषा है। उसका व्यवहार बहुत बढ़ा-चढ़ा है। उसे सीखिए। हमारी मातृभाषा स्थानच्युत हो गई है और उसका स्थान दूसरी भाषाने ग्रहण कर लिया है; और अब हमें उसे पुनः अपने स्थानपर प्रतिष्ठित करना है।

ऐसी ही और बहुत-सी त्रुटियाँ हैं, पर उन्हें दूर करने और नई कार्यप्रणाली स्थिर करनेके लिए हम ठहर नहीं सकते। हम उस झंडेके नीचे नहीं रह सकते, जिसको सलाम करनेके लिए हमारे लड़के मजबूर किये गये थे।[१] विद्यार्थियों, आप अपना विचार स्थिर कर लें। यदि वह त्याज्य है तो वहाँ की 'गीता', 'कुरान' सब छोड़िए। यहाँ आपको वे विशाल भवन नहीं मिलेंगे; यहाँ न मकान है, न बड़ा मैदान। झोपड़ीमें रहकर काम करना अच्छा है। महलमें झंडेकी सलामी बुरी है। जो विद्यार्थी आगे आना चाहते हैं, उन्हें स्पष्ट कहना चाहिए। विद्यालयोंकी दुरुस्ती करना मेरा काम नहीं है, उसके लिए मुझे वक्त नहीं। यदि हमारे विद्यालय खुलेंगे तो विद्या अपने-आप पवित्र हो जायेगी। मैं यहाँ आ गया हूँ, इसका कारण यह है कि बाबू भगवानदास और बाबू शिवप्रसादके दिलोंमें असहयोगकी प्रतिष्ठा हो गई है। असहयोगको बढ़ानेके लिए ही इस विद्यापीठकी स्थापना की गई है। असहयोग ही हमारे लिए एकमात्र शास्त्र है। तत्वज्ञान, मजहबी ज्ञान आदि शास्त्र नहीं हैं। यहाँ वणिक् बुद्धिका काम नहीं है। उसे हम हटाना चाहते हैं, उच्च करना चाहते हैं। अगर हम आज सेवा करते हैं तो स्वार्थसे, अपने स्त्री और बच्चोंको सुख पहुँचानकी लालसासे करते हैं। हमको राष्ट्रकी सेवा करनी चाहिए। राष्ट्रके लिए हम सब काम करेंगे। हमें व्यापारको जुआ नहीं बनाना है। हम हिन्दुस्तानको पुण्यभूमि बनायेंगे, यहाँसे हर साल ६० करोड़ रुपये कपड़ोंके लिए विदेश चले जाते हैं। इसके रोकनेका यहाँ तरीका बताया जायेगा। सीता [भूमि] की स्थापना तो लंकासे लाकर करनी है, पर यदि वस्त्र-हरणको नहीं रोक सकते तो हमने क्या किया? भूमिको अपना करना नामुमकिन है, पर वस्त्र नहीं छिनने देना चाहिए। हम सबको प्रतिज्ञा करनी चाहिए कि विदेशी वस्त्र धारण करना महापाप है। हिन्दुओं और मुसलमानोंको यह बात सुनानेमें बड़ा सुभीता है क्योंकि संयम और त्याग दोनोंका धर्म है। विदेशी कपड़ा पहनना पाप है। पहला धर्म चरखा चलाना है। विद्यालयको चलानेवाले इसे याद रखेंगे। हम लोग विद्यार्थियोंके जरिये ६० करोड़ रुपया बचा सकते हैं। इसको बचाइए। विद्यार्थी यही करें। इसीसे हमारी आर्थिक शुद्धि होगी।

दूसरा कर्त्तव्य अपनी मातृभाषाको विकसित करना है। इसे न लिख-पढ़ सकना शर्मकी बात है। जो-कुछ अंग्रेजीमें तालीम मिली है, उसे मातृभाषामें हजम कीजिए। हिन्दुओं और मुसलमानोंको, सेवा कैसे हो सकती है, सो सीखना है। हमें उर्दू और देवनागरी दोनों लिपियाँ सीखनी चाहिए। हमें ऐसी हिन्दी चलाना है, जिसमें संस्कृत और उर्दू मिली

  1. सन् १९१९ में मार्शल लॉ के दौरान, पंजाबमें।