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भाषण : दिल्लीमें तिब्बिया कालेजके उद्घाटनपर

हूँ कि मैं इस उत्सवमें राजनीतिक कारणोंसे सम्मिलित हो रहा हूँ। मैं हकीमजीको हिन्दू-मुसलमानोंकी एकताकी प्रतिमा समझता हूँ। इस एकताके बिना हम कोई उन्नति नहीं कर सकते। मैं इस विद्यालयको उस एकताकी मूर्ति समझता हूँ और नहीं इस कारण मुझे इस उत्सवमें सम्मिलित होनेमें बड़ा हर्ष हो रहा है।

जो विवरण मन्त्रीने अभी सुनाया है उसको आपने सुना है, और उससे आप लोगोंको मालूम हो गया होगा कि इसके लिए कितना परिश्रम किया गया है और इसमें कितनी उन्नति हुई है। इससे स्पष्ट प्रतीत होता है कि यदि एक आदमी तत्परतासे अपनी शक्ति किसी काममें लगाये तो क्या नहीं कर सकता। मैं ईश्वरसे प्रार्थना करता हूँ कि हकीमजीको दीर्घायु प्राप्त हो जिससे कि वे इस कामको पूरा कर सकें। मुझे आशा है कि देशके धनी लोग बिना माँगे ही इसमें धनकी सहायता देंगे जिससे कि उनका भार कम हो। आपको मालूम है कि इस विद्यालयके खोलनेके अतिरिक्त मुझे लॉर्ड और लेडी हार्डिंगके चित्रोंका भी अनावरण करना है। इस कामको करनेमें मुझे विशेष प्रसन्नता होती है, क्योंकि यह दिखलानेका मुझे अवसर मिला है कि असहयोगकी लड़ाईमें हम अंग्रेज जातिसे कोई द्वेषका भाव नहीं रखते और हमारा राष्ट्रीय आदर्श यही है कि चाहे अंग्रेज हो, चाहे हिन्दुस्तानी, जिस किसीने हमारे साथ भलाई की हो उसको हम स्मरण रखें।

औषधिके सम्बन्धमें जो मेरी राय है उसको स्पष्ट करनेके लिए आपको कुछ देरके लिए कष्ट दूँगा, जिससे कि इस विषयमें किसीको कोई भ्रम न हो। मैंने एक पुस्तकमें[१], जिसपर कि हालमें बहुत टीका-टिप्पणी की गई है, लिखा था कि मैं औषधिकी प्रचलित प्रणालीको पैशाचिक युक्ति समझता हूँ। मैं अस्पतालोंकी बढ़तीमें सभ्यताकी उन्नति नहीं देखता। इसको मैं अवनतिका स्वरूप ही समझता हूँ, जैसे कि पिंजरापोलोंकी संख्या बढ़नेसे यही मालूम पड़ता है कि लोगोंमें मवेशीकी भलाईकी ओरसे उदासीनता ही है। इस कारण मुझे आशा है कि यह विद्यालय लोगोंको रोगोंसे बचानेका विशेष प्रयत्न करेगा और रोगीको नीरोग करनेकी कम फिकर करेगा। स्वास्थ्य रक्षाकी कला नीरोग करनेकी कलासे अधिक गौरवपूर्ण है, यद्यपि इसकी साधना अधिक कठिन भी है। चिकित्साकी प्रचलित प्रणालीको मैं पैशाचिक इस कारण समझता हूँ कि इससे प्रेरित होकर लोग शरीरका महत्व जरूरतसे ज्यादा मानने लगते हैं और अन्तःस्थित आत्माकी अवहेलना करते हैं। इस विद्यालयके विद्यार्थियों और अध्यापकोंसे मेरी प्रार्थना है कि वे आत्माके स्वास्थ्यके नियमोंका अनुसन्धान करें जिससे कि उन्हें मालूम हो जायेगा कि शरीरकी चिकित्साके सम्बन्धमें भी उससे बहुत चमत्कारी परिणाम हासिल होंगे। इस समयकी चिकित्सामें धर्मका भाव बहुत कम होता है। जो आदमी अपनी नमाज और गायत्री रोज ठीक भावसे पढ़ता है उसको तो बीमार पड़ना ही नहीं चाहिए। यदि आत्मा शुद्ध रहेगी तो शरीर भी शुद्ध रहेगा। मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि धार्मिक आचरणसे आत्मा और शरीर दोनों शुद्ध रह

  1. अनुमानत: गांधीजीका तात्पर्य अपनी आरोग्य-विषयक लेखमाला (देखिए खण्ड ११ और १२) या हिन्द स्वराज्यसे है।