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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

सकते हैं। मेरी आशा और प्रार्थना है कि इस विद्यालयके द्वारा हकीम लोग आत्मा और शरीरका फिर मेल करेंगे।

आधुनिक चिकित्सा-शास्त्रने शरीरके स्थायी अंश, अर्थात् आत्माकी अवहेलना कर बीमारियोंका अनुसंधान किया है, जिसका यह नतीजा हुआ कि उसने यह नहीं पहचाना कि इस सम्बन्धमें हम लोग कहाँतक काम कर सकते हैं और कहाँसे आगे नहीं बढ़ सकते। शरीरको स्वस्थ करनेकी चेष्टामें उसने मानवेतर जीवोंकी अवहेलना की है। मनुष्य यदि सब जीवोंका स्वामी है तो वह उनका रक्षक भी है। जन्तुओंकी रक्षा करनेके बदले वह उनका घातक हो गया है और चिकित्सा-शास्त्राने विशेषकर यह घात किया है। मेरी रायमें जीवित पशुओंका अंग-भंग करना सब पापोंमें महापाप है। यह ईश्वर और उसकी सुन्दर सृष्टिके प्रति पाप करनेके समान है। अगर जीवोंकी हिंसा और उत्पीड़नसे ही हम जीवित रह सकते हैं तो हमारा जीना हराम है। हमें ईश्वरको दयालु कहकर उसके आशीर्वादके लिए प्रार्थना करना शोभा नहीं देता, जब हम अन्य जीवोंके साथ साधारण दया भी नहीं दिखाते। मेरी ईश्वरसे प्रार्थना है कि भारतके श्रेष्ठतम हकीम द्वारा स्थापित यह विद्यालय सदा स्मरण रखेगा कि हम लोगोंके कार्यक्षेत्रकी ईश्वरने एक सीमा निर्धारित कर दी है।

इतना कहकर मैं आधुनिक यूरोपीय वैज्ञानिकोंमें जो अनुसंधानका भाव है उसकी प्रशंसा करना चाहता हूँ। मेरा झगड़ा उस भावसे नहीं है पर उस मार्गसे है जिसका कि उन्होंने अवलम्बन किया है। उन लोगोंने सिर्फ इस बातका खयाल किया है कि किन-किन तरीकोंसे हम मनुष्यके शरीरको सुख पहुँचा सकते हैं। पर जिस तत्परता, परिश्रम और आत्मत्यागके साथ सत्यके अनुसंधानमें इन वैज्ञानिकोंने सब-कुछ किया है उसका मैं हृदयसे आदर करता हूँ। और गहरे अनुभवके बाद मुझे बड़े खेदसे यह कहना पड़ता है कि हमारे वैद्यों और हकीमोंमें ऐसा भाव नहीं रहा है। वे लकीरके फकीर बने रहे हैं और हमारी पुरानी औषधियोंकी हालत इस समय बड़ी शोचनीय हो गई है। आधुनिक अनुसंधानके परिणामोंको न जानकर उन्होंने अपना पेशा ही खराब कर डाला है। मैं आशा करता हूँ कि यह विद्यालय इस महादोषको दूर करेगा और आयुर्वेदिक और यूनानी चिकित्साशास्त्रको फिरसे अपने पुरातन गौरवपर प्रतिष्ठित करेगा। मुझे हर्ष है कि विद्यालयका एक पाश्चात्य चिकित्सा-विभाग भी है। मुझे आशा है कि तोनों चिकित्सा प्रणालियोंके सम्मिलनसे एक ऐसी प्रणाली निकलेगी जिसमें कि तीनोंके दोष न रहें। मुझे यह भी आशा है कि यह विद्यालय प्राच्य और पाश्वात्य, दोनों प्रकारकी नीमहकीमीसे दूर रहेगा और केवल वास्तविक गुणोंको ही मान्यता देगा और अपने विद्यार्थियोंमें यह भावना भरेगा कि यह धन्धा धन कमानेके लिए नहीं है, पर दुःख-दर्द निवारण करनेके लिए है। ईश्वरसे यह प्रार्थना करते हुए कि इसके जन्मदाता और व्यवस्थापकोंके परिश्रमके लिए वह उन्हें आशीर्वाद दे, मैं यह घोषणा करता हूँ : यह तिब्बी विद्यालय खुल गया।

आज, १५–२–१९२१