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अहिंसाकी एक विजय

अभी तो हममें सम्पूर्ण शान्तिका प्रसार नहीं हुआ है। हमारी वाणी और हमारा हृदय शुद्ध नहीं हुआ है। हममें रोष है, गुस्सा है। इसीसे हमारी शान्तिकी पूरी तरहसे छाप नहीं पड़ती। जब हमारे संघर्ष में कटुताका लेश भी नहीं रहेगा, जिस दिन कार्यकर्त्ता बिल्कुल शुद्ध आचरण करेंगे, उसी दिन हमें स्वराज्य मिल जायेगा। हम जैसा करते हैं, सामान्य वर्ग वैसा ही करता है। इतर वर्गके लोग श्रेष्ठ जनोंका अनुगमन किया करते हैं।

सरकारके प्रस्तावके अन्त में एक डंक निहित है, और उसका कारण यह है कि डंक तो हमारी पूँछमें भी है। शान्तिको धर्म मानकर उसका पालन करनेवाले हममें मेरे जैसे कितने लोग हैं। मेरे भाई शौकत अली भी शान्तिको सर्वकालीन धर्म नहीं मानते; उसे इस समयके लिए आवश्यक एक आपद्-धर्म मानते हैं। वे शान्तिको एक युक्ति――पालिसी के रूप में स्वीकार करते हैं। यदि हम सब शान्तिको ही सर्वोच्च स्थान दें तो हमें आज ही स्वराज्य मिल जाये। ऐसा हम निकट भविष्यमें करेंगे―― इस मान्यताके आधारपर में कहता हूँ कि तब स्वराज्य एक वर्षके भीतर प्राप्त हो जायेगा। शान्तिके बिना स्वराज्यका क्या उपयोग? अधर्मका नाश धर्मकी स्थापनामें ही है। यह अधर्म राज्य है, दृढ़तापूर्वक ऐसा कहने के साथ ही हमें धार्मिक बनना पड़ता है। क्या कोई अधम व्यक्ति दूसरे अधम व्यक्तिपर अधम होनेका आरोप लगा सकता है? सूप बोले तो बोले, चलनी क्या बोले? अधर्मका नाश धर्मसे ही होता है। जहाँ अत्याचारको सहनेवाला नहीं होता वहाँ अत्याचारीका उपद्रव भी नहीं होता।

हम लोगोंने पूरी तरह सचको नहीं अपनाया; इसी कारण सरकारका प्रस्ताव भी झूठ और दम्भसे भरा हुआ है। सरकारका कहना है कि चूंकि हम शान्तिमय युद्ध करते हैं इस कारण उसने समाचारपत्रोंपर से प्रतिबन्ध हटा लिया है। यह कथन बिल्कुल सच नहीं है। कितने ही समाचारपत्र अभीतक परेशानी में पड़े हैं। जिन्हें गिरफ्तार किया गया है उन्हें गिरफ्तारीका कारण यह बताया गया है कि उन्होंने लोगोंको शान्तिभंग करनेके लिए उत्तेजित किया था। यह बात भी सही नहीं है जिन्हें गिरफ्तार किया गया है उनकी भाषा भले ही निर्दोष न हो लेकिन उन्होंने किसीको अशान्तिकी सलाह कदापि नहीं दी। और अगर दी भी हो तो सरकारने यह सिद्ध नहीं किया। अपराधको सिद्ध किये बिना अपराधीको दण्ड नहीं दिया जा सकता, ऐसा कानून है। असहयोगकी निन्दा करने में सरकारने बहुत ज्यादा दम्भसे काम लिया है। सरकारका कहना है कि असहयोगसे अराजकता फैलेगी। लेकिन सरकार जानती है कि व्यवस्था असहयोगसे ही आरम्भ हुई है। सरकारी शिक्षाके परित्यागका अर्थ शिक्षामें अव्यवस्थाका होना नहीं वरन् गुलामीकी शिक्षाके स्थानपर स्वतन्त्रताकी शिक्षाकी स्थापना करना है; सरकारी अदालतोंका त्याग अर्थात् झगड़े-फिसादको बढ़ावा देना नहीं बल्कि उसका पंचोंकी मार्फत निर्णय करवाना है; विधान परिषदोंका त्याग अर्थात् संयमका त्याग नहीं वरन् स्वैराचारी कानूनोंका पालन करनेके स्थान पर जनमान्य संयम रूपी कानूनोंका पालन करना है; विदेशी कपड़ेका त्याग करनेका