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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

अभिप्राय नग्नावस्था नहीं अपितु जनताके अपने हस्तकला-कौशलसे तैयार किये गये पवित्र कपड़ेका शरीर-रक्षाके निमित्त पवित्र उपयोग है; सरकारकी फौजमें भरती होने से इनकार करना, जनता में अपनी रक्षा करनेकी शक्तिका होना है, इस तरह सरकारके विरुद्ध असहकार करनेका अर्थ है जनतामें भीतर-ही-भीतर पूर्ण सहकार।

दम्भके समान ही सरकारकी उद्धतताकी भी कोई सीमा नहीं है। जो व्यक्ति व्यर्थ ही डराता-धमकाता है वह उद्धत है। जो असम्भवके सम्भव होनेका दावा करे वह उद्धत है। सरकारका दावा है कि हिन्दुस्तानको बाहरी आक्रमणके भयसे वही बचाती है। वह कहती है कि यदि असहयोगकी विजय हो तथा सरकार हिन्दुस्तानसे विदा ले ले तो हिन्दुस्तानकी स्थिति बिना माँके बच्चे-जैसी अरक्षित हो जाये। फिर तो कोई भी देश उसपर आक्रमण कर सकता है। सच तो यह है कि यदि हममें परस्पर सहयोग हो, हम हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, सिख और पारसी लोग एक हैं, ऐसा मान हम निडर होकर स्वावलम्बी बन जायें, जनता अपनी जरूरतकी वस्तुएँ――अन्न-वस्त्रादि――हिन्दुस्तान में ही उत्पन्न करे तो फिर कौन हिन्दुस्तानकी ओर आँख उठा सकता है?

अहिंसाका, शान्तिका अर्थ कायरता नहीं है। उसका अर्थ शुद्ध पौरुष है। हिन्दुस्तानपर आक्रमण हो तो हिन्दुस्तान या तो परम शान्तिसे शत्रुको परास्त करेगा अथवा उससे अगर ऐसी उद्धतता सहन न हो सकी तो उसकी क्षत्रिय जातियाँ――सिख, मुसलमान आदि――आक्रमणकर्त्ताको दण्ड देंगी। अहिंसाका, अमनका अर्थ पराधीनता या दुर्बलता नहीं है। जहाँ शोर्य है वहीं क्षमा हो सकती है। जब सरकारको ‘अलविदा’ कहनेका समय आयेगा तब हिन्दुस्तान आजकी तरह निस्तेज नहीं होगा बल्कि उस समय उसका तेज चारों ओर उद्भासित हो रहा होगा। यदि कोई यह प्रश्न करे कि ऐसा दिवस क्या एक वर्ष में आना सम्भव है? तो उसे यह उत्तर दिया जा सकता है कि जबतक ऐसा दिन नहीं आ जाता तबतक हिन्दुस्तान कदापि स्वराज्यका उपयोग करनेके योग्य नहीं बन सकता और ऐसा शुभ दिन शान्तिमय असहयोग से ही आयेगा। इस दिवसको में तो समीप ही आते देखता हूँ।

नरमदलके बुजुर्ग लोगोंसे में अत्यन्त विनम्रता से प्रार्थना करता हूँ कि वे सरकारकी कुटिलताको पहचानें और उसके द्वारा बिछाये गये जालमें न फँसें।

शिक्षाके सम्बन्धमें सरकारने जो आरोप लगाये हैं मैं उस झगड़ेमें अभी नहीं पड़ता। माता-पिताकी सहायता न मिल पाती तो आन्दोलन अबतक जितना आगे बढ़ पाया है उतना कदापि न बढ़ पाता। जहाँ कहीं माता-पिता श्रद्धासे रहित हैं और जहाँ पुत्रों में आत्मबल है वहाँ मैंने उन्हें विनयपूर्वक पिताकी आज्ञाका उल्लंघन करनेकी सलाह दी है। इस सलाहमें न तो अनीति है, और न अविचार अथवा अविवेक ही। युवकोंको स्वतन्त्र रूपसे विचार करनेका अधिकार सब शास्त्रों में दिया गया है।

सरकारके प्रस्तावसे हमें यह सीखना है कि हमने शस्त्रका त्याग करके जिस तरह उसके शस्त्रबलको लगभग जीत लिया है उसी तरह हमें उसके दम्भ, छल और