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हाथ कताईपर कुछ और विचार

देशवासियोंकी गरीबी और लाचारीको जानता हूँ; और इसलिए मैं तो सिर्फ उसी उपायकी बात सोच सकता हूँ जो भारतके लिए कामधेनु हो। चरखा भारतके लिए कामधेनु ही है। ईस्ट इंडिया कम्पनीके आनेसे पहले भारतके हर घरमें चरखा चलता था। भारतमें रुईकी खेती होती है इसलिए इस देशमें बाहरसे गज-भर भी सूत लाना अपराध है। लेखक द्वारा दिये गये आँकड़े भी अप्रासंगिक हैं।

सच तो यह है कि १९१७-१८ में भारतमें ६२.७ करोड़ पौंड सुतके उत्पादनके बावजूद विदेशोंसे कई करोड़ गज सूतका आयात हुआ। मिलों तथा जुलाहोंने इसका उपयोग किया। ऐसा लगता है कि लेखकको शायद यह भी नहीं मालूम कि जुलाहे मिलोंसे ज्यादा सुत बुनते हैं। और चूँकि अधिकांश सूत विदेशी है इसलिए हमारे जुलाहे विदेशी कतवैयोंका पोषण कर रहे हैं। अगर हम किसी दूसरे कार्यमें भी अपने समयका सदुपयोग कर रहे होते तो मैं इस बातको बुरा न मानता। किन्तु कताईका काम प्राय: जबरदस्ती ही बन्द कर दिया गया है और उसका स्थान दासता और बेकारीने ले लिया है। आजकल हमारी मिलें हमारी जरूरतका कपड़ा भी तैयार नहीं कर पातीं। यदि कर भी पायें तो जबतक उन्हें विवश न किया जाये वे दामोंमें कमी नहीं करेंगी। मिलवाले तो बिना झिझके धन कमानेपर तुले हुए हैं। वे राष्ट्रकी जरूरतोंको देखकर दाम तय नहीं करेंगे। हाथ कताईका उद्देश्य ही यह है कि इससे गरीब ग्रामवासियोंको मजदूरीके रूपमें लाखों रुपये पहुँच सकें। हर कृषि-प्रधान देशमें एक अनुपूरक धन्धेकी आवश्यकता होती है जिससे किसान अपने खाली समयका सदुपयोग कर सके। भारतके लिए हमेशासे कताई अनुपूरक धन्धा रहा है। भारतके अद्भुत वस्त्रोंमें जो अद्वितीय कलात्मकता भरपूर झलकती थी और जिससे संसार भरके लोगोंको ईर्ष्या होती थी, इस प्राचीन धन्धे नष्ट होनेसे लुप्त हो गई है और उसकी जगह आई है केवल दासता। क्या इस धन्धके पुनरुद्वारका यह प्रयत्न कोरी कल्पना ही है?

और अब थोड़ा हिसाब-किताब भी देखिए। यदि एक लड़का प्रतिदिन चार घण्टे काम करे तो १/४ पौंड सूत कात सकता है। इस तरह ६४,००० विद्यार्थी प्रतिदिन १६,००० पौंड सूत कात लेंगे। और यदि एक जुलाहा दो पौंड हाथकते सूतको बुने तो इस सूतसे ८,००० जुलाहोंको जीविका मिल सकती है। पर शुद्धिके इस वर्षमें विद्यार्थियों और दूसरे लोगोंको कताईको लोकप्रिय बनानेके लिए प्रायश्चित्त-स्वरूप कताई करनी है। इससे हाथकते सूतका उत्पादन चालू वर्षके लिए निश्चित उत्पादनसे भी बढ़ जायेगा। राष्ट्र यदि अत्यधिक आलसी हो गया है तो बात अलग है; नहीं तो यदि सभी इस काममें योग दें तो यह हदसे ज्यादा आसान है। इतना-सा मामूली त्याग करके और कुछ नहीं तो साठ करोड़ रुपयेकी वार्षिक बचत होगी। मैंने कई मिल मालिकों, अर्थ-शास्त्रियों, व्यापारियोंसे इस विषयमें बात की है और उनमें से कोई भी उपर्युक्त स्थितिको गलत साबित नहीं कर सका। मुझे लगता है कि 'सर्वेट् ऑफ इंडिया' को एक गम्भीर विषयपर उचित गम्भीरता और तथ्योंकी ठीक-ठीक जानकारी होनेपर ही विचार करना चाहिए।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, १६–२–१९२१
१९–२४