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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


पैसा एक तो कांग्रेसकी अखिल भारतीय समितिके कोषाध्यक्षको, दूसरे, कांग्रेसके कोषाध्यक्ष सेठ जमनालाल बजाजको अथवा मियाँ छोटानीको[१] भेजा जा सकता है। जो इनमें से किसीके पास भी नहीं भेजना चाहते और सिर्फ 'नवजीवन' के कार्यालयमें ही भेजना चाहते हैं, वे 'नवजीवन' के कार्यालयको भेजें। उनके धनकी प्राप्तिकी सूचना 'नवजीवन' में दी जायेगी और वह पैसा गुजरात प्रान्तीय कांग्रेसके कोषाध्यक्षके पास भेज दिया जायेगा।

मुझे उम्मीद है कि प्रत्येक गाँव तुरन्त ही इस कार्यको हाथमें ले लेगा।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, २०-२-१९२१

 

१८६. क्रोध आनेपर क्या करना चाहिए?

मेरे अनुभवोंके भण्डारमें दिनोंदिन वृद्धि होती जाती है। नित्य नये अनुभव। गोरखपुरकी यात्रा पूरी करनेके बाद हमें काशी जाना था। यात्रा ज्यादातर रातको होती है। हर महीने लगभग पन्द्रह रातें ट्रेनमें बीतती हैं, ऐसा कहनेमें कोई अतिशयोक्ति नहीं है। उस रातको[२] तो हद ही हो गई। गाड़ी हरेक स्टेशनपर काफी देरतक रुकती थी और हर स्टेशनपर एकत्र लोगोंकी भीड़का शोर-गुल होता था। मेरे साथी लोगोंसे विनती करते और उस परिस्थितिमें जितना सम्भव था उतनी शान्ति रखनेका प्रयत्न करते थे। मैं बहुत थका हुआ और श्रान्त महसूस कर रहा था। मेरी पत्नी और भाई महादेवने[३] एक स्टेशनपर लोगोंको शान्त रखनेका भारी प्रयत्न किया। लेकिन वे कहाँ माननेवाले थे। उन्हें तो मेरे 'दर्शन' अवश्य चाहिए थे। वे खिड़कीसे झाँकते थे, अनेक तरहकी बातें कहते थे और ताने भी मारते थे। आखिर, मेरा धीरज छूट गया। मुझे लगा कि मुझे अपनी पत्नी और महादेवकी कुछ रक्षा करनी ही चाहिए। मैं उठा और मैंने खिड़कीसे अपना सिर बाहर निकाला। मैं क्रोधसे जल रहा था और इसी कारण मैंने कुछ ओढ़ा भी नहीं था। सर्दी काफी थी लेकिन क्रोधमें मुझे वह कैसे महसूत होती? मैंने ऊँची आवाज में लोगोंसे प्रार्थना की। उनकी 'जय' की आवाज और भी जोर पकड़ने लगी। मुझे बहुत खीझ आई। मैंने कहा, "आपको एक स्त्री और एक युवकपर तरस खाना चाहिए? आप इस तरह क्यों परेशान करते हैं? रातमें दर्शन कैसे?" लेकिन लोग तो यह सब सुनना ही नहीं चाहते थे।

मैं क्या करूँ? खिड़कीसे कूद जाऊँ? लोगोंको मारूँ? स्टेशनपर ही रह जाऊँ? कूद कैसे सकता था? रोनेसे क्या लाभ? लोगोंको मारना तो हो ही नहीं सकता? स्टेशन-

  1. मियाँ मुहम्मद हाजी जान मुहम्मद छोटानी; बम्बईके एक राष्ट्रवादी नेता।
  2. ८ फरवरी, १९२१ की रात।
  3. महादेव हरिभाई देसाई (१८९२-१९४३); गांधीजीके निजी सचिव; सन् १९१७ में गांधीजीके साथ हुए। अपने जीवन-कालमें गांधीजीके विचारोंके प्रमुख भाष्यकार; वर्षोंतक गांधीजीके साप्ताहिकोंका सम्पादन किया। वे गांधीजीके अत्यन्त निकटवर्ती अनुपायियोंमें से थे।