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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

ऐसे प्रश्नसे नास्तिकता प्रकट होती है। आत्मप्रहार भी एक तरहकी तपश्चर्या है। उसका फल शुभ ही होता है। दुश्मनपर उसका असर हुए बिना नहीं रहता। लेकिन हमारा उद्देश्य अंग्रेजोंपर प्रभाव डालनेका नहीं है; हमारा आशय तो स्वयं अपनेको पवित्र, दृढ़, साहसी और निर्भय बनानेका है। हम निर्भय बनेंगे तब हमपर कौन शासन करेगा? निर्भय जंगली जातियोंपर भी कोई शासन नहीं कर सकता तो फिर निर्भय हो जानेपर सभ्य हिन्दुस्तानपर कौन शासन कर सकेगा?

आत्मप्रहार करनेके सबल कारण होने चाहिए। क्रोधका कारण शुद्ध होना चाहिए। वैसा न हो तो उस स्थितिमें किया हुआ आत्मप्रहार आत्म-हत्या है और इसलिए निन्द्य है। वह सत्याग्रह नहीं हो सकता; वह तो दुराग्रह ही होगा।

ऐसे दुराग्रहके उदाहरण भी मेरे पास आते रहते हैं। किसीके घर बैठकर पैसेके लिए लंघन करनेवाला व्यक्ति तपस्या नहीं करता; वह तो बस भूखों ही मरता है। यदि उसकी भूखसे उसपर झूठा तरस खाकर अन्य व्यक्ति पैसा भी दे दे तो वह कोई धर्म-कार्य नहीं होगा। आत्मप्रहारके उदाहरणका अनुकरण अगर विवेकपूर्वक न किया जाये तो जो दुःख सहन किया है उसके व्यर्थ हो जानेका भय है ;

[गुजरातीसे]
नवजीवन, २०–२–१९२१
 

१८७. पत्र : जी॰ एल॰ कॉर्बेटको

रावलपिंडी
२० फरवरी, १९२१

प्रिय श्री कॉर्बेट,

आपका पत्र मुझे लाहौरमें बृहस्पतिवारको[१] मिला। इसके लिए धन्यवाद। यद्यपि लगता है कि हम दूर होते जा रहे हैं, फिर भी मुझे विश्वास है कि यह हमारे पास आनेकी ही प्रक्रिया है। हमें वास्तवमें आजका झूठा और अस्वाभाविक सम्बन्ध ही एक दूसरेसे दूर रखे हुए है।

मैं स्वतन्त्र और स्वेच्छिक प्रवासके[२] विरुद्ध नहीं हूँ; किन्तु इस बारेमें मैं उदासीन हूँ; यहाँतक कि इसको बढ़ावा देनेके भी विरुद्ध हूँ। मेरा फीजीके अधिकारियोंपर[३] बिलकुल ही विश्वास नहीं है। इस बारेमें मैं इतना काफी सुन चुका हूँ कि भारतीय प्रवासियोंके कथनकी सचाईपर मुझे पूरा विश्वास हो गया है। ऐसी परिस्थितियोंमें एक भी प्रवासीका फीजी जाना मैं खेदजनक समझूँगा। भारतीयोंका प्रवास तभी उचित कार्य माना जा सकेगा जब भारत पूरी तौरपर खुदमुख्तियार बन जाये और उपनि-

  1. १७ फरवरी।
  2. देखिए खण्ड १७, पृष्ठ ६-८ ।
  3. जिन्होंने भारतीय प्रवासियोंको वहाँ भेजनेका प्रस्ताव किया था।