सात् करने और हिन्दुस्तानी सीखने दो। जो युवक यह वायदा नहीं करते कि यदि वे दस महीनोंतक ऐसा नहीं कर पायेंगे या नहीं करेंगे तो सालके अन्तमें अपना सामान्य अध्ययन चालू कर देंगे, उनके लिए यही अच्छा रहेगा कि वे कालेज न छोड़ें। वे तभी सरकारी कालेजको छोड़े, जब वे समझें कि उन कालेजोंमें पढ़ना पाप है; अन्यथा न छोड़ें।
सस्नेह,
तुम्हारा,
मोहन
अंग्रेजी पत्र (जी॰ एन॰ ९५९) की फोटो नकलसे।
१९१. पत्र : ए॰ एफ॰ फ़ीमेंटलको[१]
[२३ फरवरी, १९२१ के पूर्व]
आपका १२ तारीखका पत्र अभी-अभी मिला है। उत्तर तफसीलसे नहीं दे पा रहा हूँ, इसके लिए कृपया क्षमा करेंगे।
जो पत्र[२] आपने कभी देखा नहीं, तथा जिसका अनुवाद भी आपने अंशतः ही पढ़ा है, उसकी आलोचना करके आपने अपने प्रति भी न्याय नहीं किया। यदि पत्र पढ़ा होता, तो आपने देखा होता कि अपनी सेवाओंका उल्लेख, मैंने जो कष्ट सहे उनका प्रदर्शन करनेके लिए नहीं किया, यह दिखानेके लिए तो और भी नहीं कि वे निःस्वार्थ थीं। मैंने उनका उल्लेख मात्र यह दिखानेके लिए किया था कि प्रतिकूल परिस्थितियोंके बीच भी ब्रिटेन और भारतके सम्बन्धोंमें मेरी कैसी एकाग्र निष्ठा रही। मेरी सेवाएँ निःस्वार्थ नहीं थीं; क्योंकि मेरा विश्वास था कि मैं उन सेवाओंके द्वारा अपने देशको स्वतन्त्रताकी ओर ले जानेमें सहायक बनूँगा। अंग्रेजोंके शौर्य तथा आत्मत्यागका उल्लेख निरर्थक है। अंग्रेजोंके शौर्य तथा आत्मत्यागमें कोई सन्देह नहीं किया जा सकता। किन्तु क्षमा करें, अंग्रेजोंकी राष्ट्रीय निःस्वार्थताका दावा मैं पूर्णत: अस्वीकार करता हूँ। मैं उस समय भी ऐसा नहीं मानता था, और आज संसार भी ऐसा नहीं मानता कि पिछला युद्ध न्यायके लिए हुआ था, या कि वह निःस्वार्थ था। आप लोग जर्मनोंको कुचल देना चाहते थे, और फिलहाल आप कामयाब हो गये हैं। मैं नहीं समझता कि जर्मन लोग उतने बड़े शैतान हैं, जितना कि उन्हें इंग्लैंडके अखबारोंने चित्रित किया है; न मैं यही समझता हूँ कि यदि वे जीत जाते तो दुनियाका खात्मा हो गया होता।