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१९५. भाषण : श्रीकी सिख परिषद्में[१]

२५ फरवरी, १९२१

मैं स्वीकार करता हूँ कि अपने पवित्र स्थलोंका कब्जा हमारे हाथमें होना चाहिए। यह कब्जा हम अपने हाथमें एक ही दिनमें ले सकते हैं। लेकिन कैसे? यदि एक भी व्यक्ति गुरुद्वारेमें न जाये और अपवित्र महन्तोंके अपवित्र हाथोंमें एक भी पैसा न दिया जाये तो आप आज ही उनसे अपनी मनचाही बात मनवा सकते हैं। अभी अगर आप यह मानते हैं कि ननकाना साहबका कब्जा आपके हाथमें हैं तो आप भूल करते हैं। वह कब्जा तो आपको सरकारी फौजने दिया है। मैं आपके पास जैसा कब्जा देखना चाहता हूँ वह यह नहीं है। मेरे कहनेका अभिप्राय यह नहीं है कि आप मिले हुए कब्जेको छोड़ दें। लेकिन जिस तरह यह कब्जा आपको मिला है उससे थोड़ी नामोशीकी बात तो जरूर है।

मुझे शहीदोंके[२] लिए बहुत दुःख होता है। लेकिन मैं जानता हूँ कि यह रोनेका समय नहीं बल्कि मरनेका समय है। इस समय तो छातीपर चोट खाकर हम सब मर सकें यही मेरी इच्छा है। ननकाना साहबके शहीदोंने ऐसी ही बहादुरी दिखाई जान पड़ती है। लेकिन मैं अपना दोष भी देखे बिना नहीं रह सकता। हमें धमकी देकर गुरुद्वारेपर कब्जा लेनेका अधिकार नहीं है। यदि महन्तने लायलपुरमें आकर लछमनसिंहकी हत्या की होती तो वैसा करनेके बाद वह घड़ीभरके लिए भी अपना कब्जा न रख सकता। लेकिन ननकाना साहबमें तो हमने उसे अवसर दिया। गुरुद्वारेका कब्जा हम खामोशी से ही ले सकते हैं। इतने वर्षोंतक हम चुप रहे। क्या एक वर्ष और चुप रहनेमें दोष है?

[गुजरातीसे]
नवजीवन, १७-४-१९२१
 
  1. महादेव देसाईके यात्रा-विवरणसे उद्धृत।
  2. ननकाना साहबमें हुई दुर्घटनाके समय, जो २० फरवरीको हुई थी। देखिए "सिख जागृति", १३-३-१९२१ ।