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इस प्रतिबन्धको बुरा समझे तो उससे किसी चिन्तकको "जनताकी स्वतन्त्रतापर निष्ठुरतापूर्ण प्रतिबन्ध" जैसे विषयपर चिन्तन करनेकी प्रेरणा मिल सकती है। लेकिन मौजूदा मामलेमें तो यह वैसा ही है, जैसे उमड़ते हुए जल-प्रवाहको एक तिनकेसे रोकनेका प्रयत्न। दोनों हालतोंमें खरे प्रचारका निषेध, चाहे वह प्रचार सरकारके दृष्टिकोणसे आपत्तिजनक ही क्यों न हो, एक वाहियात काम है। जो भी हो, प्रस्तुत प्रतिबन्ध एक ऐसी सरकारका लक्षण है, जो अपने नाशकी ओर आप ही लड़खड़ाती हुई बढ़ चली जा रही है।

इससे शिक्षा

यद्यपि मैं इस प्रतिबन्धको स्थानीय अधिकारियोंके उत्साहातिरेकका प्रदर्शनमात्र मानता हूँ, तथापि इससे हमें एक शिक्षा मिलती है। सरकार किसी भी दिन असहयोगियोंके लिए तार, डाक, रेल तथा अखबारोंका उपयोग निषिद्ध कर सकती है। तो क्या इससे हमारी लड़ाई एक क्षणके लिए भी रुक जायेगी? मैं आशा करता हूँ कि ऐसा नहीं होगा। इस लड़ाईका आयोजन ही इस प्रकार किया गया है कि यह सरकारकी सहिष्णुतापर निर्भर न रहे। यह आन्दोलन तो अपनी सफलताके लिए अपनी सर्वव्यापकतापर निर्भर है। निस्सन्देह इक्के-दुक्के व्यक्तियों द्वारा असहयोग किया जाना भी कल्पनीय है और सम्भव है। लेकिन तब उसे कुछ भिन्न रूप लेना होगा। किन्तु जब असहयोगकी भावना समस्त भारतमें व्याप्त है, तब हमें तार, डाक, रेल अथवा अखबारोंपर निर्भर रहनेकी जरूरत नहीं। इन साधनोंकी सहायताके बिना भी हम अपना कार्य पूर्ण सफलताके साथ कर सकते हैं। हम एक व्यक्तिसे दूसरे व्यक्तितक, और दूसरेसे तीसरेतक, और इसी तरह जन-जनतक अपने सन्देश विद्युत् गतिसे पहुँचा सकते हैं। रेलगाड़ी नेताओंको एक स्थानसे दूसरे स्थानपर जल्दी पहुँचा देती है, किन्तु वह हजारों कुतूहलप्रिय लोगोंको भी सत्वर यहाँसे वहाँ ले जाती है, जिनका कोई उपयोगी उद्देश्य नहीं होता, उलटे वे राष्ट्रीय शक्तिका अपव्यय करते हैं। जिन लोगोंने सरकारके साथ सहयोग करना तय किया है, उनके अलावा और सभीके लिए रेलगाड़ीके उपयोगका निषेध कर दिया जा सकता है; इस सम्भावनासे मुझे कोई चिन्ता नहीं होती। इस प्रकार सरकारके साथ सहयोग करनेवालोंकी गणना आप ही आप हो जायेगी। जबतक हमारे पास कागज और कलम है, अथवा पट्टी और खड़िया ही है, तबतक हमें——यदि हमारे पास काफी स्वयंसेवक हैं तो——लिखकर अपने विचार लोगोंतक पहुँचानेकी आशा नहीं छोड़नी चाहिए। मुझसे बहुधा कहा गया है कि मुद्रण-स्वातन्त्र्यकी हमें बड़ी आवश्यकता है। मैं मानता हूँ कि मुद्रण-स्वातन्त्र्य एक बहुत बड़ी सुविधा है, किन्तु १९१९ के अप्रैल माहके सत्याग्रह सप्ताहमें मैंने सिद्ध कर दिया था कि हस्तलिखित समाचारपत्र निकालना भी सम्भव है।[१] यदि प्रतिलिपिकार स्वयंसेवक काफी संख्यामें मिल जायें, तो असंख्य प्रतियाँ निकल सकती हैं। असहयोगी

  1. गांधीजी द्वारा सम्पादित हस्तलिखित साप्ताहिक सत्याग्रहीका पहला अंक ७ अप्रैल, १९१९ को प्रकाशित हुआ था।

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