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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

दलित वर्गोंकी कठिनाई हमारी आन्तरिक कठिनाई है और इसलिए कहीं ज्यादा गम्भीर है, क्योंकि उससे फूट पड़ सकती है और उद्देश्य-सिद्धिके हमारे प्रयत्न कमजोर बन जा सकते हैं। यदि आन्तरिक कठिनाइयाँ बढ़ती ही जायें, उनका कोई अन्त ही न आये तो कोई भी उद्देश्य सफल नहीं हो सकता। फिर भी फूटसे बचने के लिए सिद्धान्तोंका त्याग बिलकुल नहीं हो सकता। यदि आप उद्देश्यके महत्त्वपूर्ण अंशोंका परित्याग करें तो उसकी जड़ोंपर प्रहार होता है और फिर वह उद्देश्य आगे नहीं बढ़ पाता। ‘दलित वर्गों’ की समस्या हमारे उद्देश्यका एक महत्त्वपूर्ण अंश है। दलित वर्गोंके साथ जो अन्याय होता आया है उसका पूरी तरह मार्जन किये बिना स्वराज्यकी कल्पना उसी प्रकार असम्भव है, जिस प्रकार सच्ची हिन्दू-मुस्लिम एकताके बिना। मेरी रायमें हमारी स्थिति साम्राज्यमें जो अछूतों और अति शूद्रों-जैसी हो गई है उसका कारण यही है कि हमने खुद अपने बीच अछूतों और अति शूद्रोंका एक वर्ग बना रखा है। गुलामके मालिकको हमेशा गुलामसे कहीं ज्यादा क्षति उठानी पड़ती है। जबतक हम भारतकी जनताके पाँचवें भागको गुलामीमें रखेंगे तबतक हम स्वराज्य पानेके योग्य नहीं होंगे। जिन्हें हम शूद्र कहते हैं, क्या हमने उन्हें पेटके बल नहीं चलाया है? क्या हमने उन्हें शेष समाजसे अलग नहीं रखा है? और यदि ‘शूद्र’ के साथ ऐसा व्यवहार करना धर्म है तो फिर हमें अलग रखना गोरी जातिका धर्म है। और यदि गोरी जातियोंका यह कहना कि हम अपनी हीनावस्थासे सन्तुष्ट हैं, ठीक नहीं है तो हमारा भी यह कहना ठीक नहीं है कि ‘दलित जातियाँ’ अपनी अवस्थासे सन्तुष्ट हैं। जब हम गुलामीको प्यार करने लगते हैं तब वह मानो अपनी चरमावस्थाको पहुँच जाती है।

इसलिए गुजरातकी सोनेटने जब तूफानके आगे झुकने से इनकार कर दिया, तो उसने यह समझ लिया था कि उसे इसका क्या मूल्य चुकाना होगा। असहयोग आत्मशुद्धिकी प्रक्रिया है। अगर हम स्वराज्यका पवित्र फल पाना चाहते हैं तो हम इन सड़ी-गली प्रथाओंसे नहीं चिपटे रह सकते। मेरा स्पष्ट मत है कि अस्पृश्यताकी प्रथा एक रिवाज-मात्र है, हिन्दू धर्मका अभिन्न अंग नहीं है। विचारके क्षेत्रमें दुनिया काफी आगे बढ़ी है, यद्यपि कर्मसे वह अब भी बर्बर है। कोई भी धर्म ऐसी किसी चीजको, जो मूल सत्योंपर आधारित नहीं है, मान्यता नहीं दे सकता। जो चीज गलत है, उसे अगर हम अच्छा बतायें तो उससे धर्मका नाश उतना ही निश्चित है जितना रोगकी उपेक्षासे शरीरका नाश।

हमारी यह सरकार एक धर्महीन संस्था है। इसने हिन्दू-मुसलमानोंको अलग करके राज किया है। वह हिन्दू धर्मकी आन्तरिक दुर्बलताओंसे लाभ उठा सकती है। वह ‘दलित’ वर्गीको शेष हिन्दुओंके विरुद्ध और ब्राह्मणेतरोंको ब्राह्मणों के विरुद्ध खड़ा कर देगी। गुजरात सीनेटके प्रस्तावसे यह समस्या समाप्त नहीं हो जाती। उससे तो इतना ही पता चलता है कि उसे हल करना कितना कठिन है। यह कठिनाई सिर्फ तभी दूर होगी जब सारा हिन्दू समाज, सामान्य हिन्दू जनता और इस समाजके विशिष्ट वर्ग, दोनों छुआछूतके पापसे अपनेको मुक्त कर लेंगे। स्वराज्यका एक हिन्दू प्रेमी