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भेंट : 'डेली हैरॉल्डके' प्रतिनिधिसे

करके भीतरी शुद्धिपर भी जोर दे रहे हैं। आलोचकगण चाहे जो कहें, लेकिन तथ्य यही है कि सरकार द्वारा चलाई जानेवाली अदालतों और शिक्षण संस्थाओंका धीरे-धीरे परन्तु दृढ़ताके साथ बहिष्कार हो रहा है। हिन्दू-मुस्लिम एकता उत्तरोत्तर राष्ट्रीय जीवनका स्थायी अंग बनती जा रही है, और जहाँतक स्वराज्य-प्राप्तिका सम्बन्ध है, अहिंसा वह स्थिति पार कर चुकी है जब इसे मात्र एक प्रयोग या कार्यसाधक नीति समझा जाता था। अब यह तेजीसे धर्मका रूप ग्रहण करती जा रही है। मैं जन्मजात आशावादी हूँ और मेरा विश्वास है कि जिस गतिसे हम बढ़ रहे हैं, यदि उसी गतिसे बढ़ते रहे तो अक्तूबरसे पहले ही वह स्थिति आ जायेगी जब सरकार देखेगी कि उसका सर्वसम्मत जनमतके बलकी उपेक्षा करना असम्भव है और हम देखेंगे कि भारत में स्वराज्य स्थापित हो गया है।

सेवरकी सन्धिकी[१] शर्तोंमें प्रस्तावित संशोधनके बारेमें आप क्या सोचते हैं ?

मैंने तो नई शर्तोपर केवल एक सरसरी नजर ही डाली है। जहाँतक मैं समझ सकता हूँ उनका उद्देश्य भारतीय मुसलमानोंको नहीं, बल्कि तुर्कीको शान्त करना है। ये दोनों चीजें अलग अलग मानी जानी चाहिए। खिलाफत मूलतः एक धार्मिक आन्दोलन है; उसका सम्बन्ध मुसलमानोंकी भावनासे है और टर्कीके तुष्टीकरणसे उसका कोई सम्बन्ध नहीं है। यह आन्दोलन सीधे पैगम्बरके निर्देशोंसे प्रेरणा ग्रहण करता है। इसलिए जबतक भारतीय मुसलमान सन्तुष्ट नहीं किये जाते तबतक शान्ति नहीं हो सकती और मुसलमानोंको शान्त करनेकी आवश्यक शर्त यह है कि जिन्हें अरबके द्वीप कहा जाता है उन्हें पूरी तरहसे केवल मुसलमानोंके ही नियन्त्रणमें रहना चाहिए; उसपर खलीफा- की धार्मिक प्रभुसत्ता होनी चाहिए, चाहे फिलहाल खलीफा कोई भी क्यों न हो। इस्लामकी प्रतिष्ठाका तकाजा है कि स्मर्ना और थ्रेस, टर्कीको वापस सौंप दिये जायें और मित्रराष्ट्र कुस्तुनतुनियाको खाली कर दें। परन्तु इस्लामके अस्तित्वके लिए यह जरूरी है कि ब्रिटेन और फ्रांसको दी गई अधिसत्ता बिलकुल समाप्त कर दी जाये। भारतीय मुसलमान इस्लामके पवित्र स्थलोंपर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष कोई प्रभाव कभी सहन नहीं करेंगे। इसलिए इसका यह अर्थ हुआ कि फिलिस्तीन भी मुसलमानों के नियन्त्रण में होना चाहिए। जहाँतक मैं जानता हूँ, यहूदियों और ईसाइयोंको फिलस्तीन जाने और अपने धार्मिक कृत्य पूरे करने में कभी भी कोई बाधा नहीं पहुँचाई गई। किन्तु धर्म या युद्धका कोई भी फतवा मित्रराष्ट्रों द्वारा फिलस्तीनका यहूदियोंको सौंपा जाना उचित नहीं सिद्ध कर सकता। यह खास तौरपर भारतीय मुसलमानोंके साथ और आमतौरपर समूचे भारतके साथ विश्वासघात करना होगा; यदि युद्धके प्रारम्भ में ब्रिटेनने ऐसे किसी अधिकार-हरणकी सम्भावनाकी ओर इशारा किया होता तो एक भी भारतीय सिपाही युद्धमें न जाता। यह दिनोंदिन स्पष्ट होता जा रहा है कि यदि

 
  1. १. प्रथम विश्व युद्ध के बाद हुई सन्धि; इसका मसविदा सबसे पहले मई १९२० में प्रकाशित किया गया। इसके बाद भारत सरकारने जब साम्राज्य सरकारको अपनी समस्याएँ और विचार समझाये तो उस सन्धिकी शर्तोंमें कुछ सुधार किये गये, जो टर्कीके लिए ज्यादा अनुकूल थे । सन्धिमें सुधार करनेके लिए लन्दन में फिर सम्मेलन हुआ, जिसने अपना काम २२ फरवरी, १९२१ को शुरू किया ।