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मेरी पंजाबकी अन्तिम यात्रा


रातमें जैसे पुराने विचारोंके लोग बंडी पहनते हैं वैसे यह भाई खादीकी बंडी पहनते हैं। धोती खादीकी और खादीकी ही टोपी पहनते हैं। उनके प्रयत्नोंसे एक प्लेगका अस्पताल खोला गया । भाई मूलचन्द और उनके भाई, दोनोंने ही अपने आपको इसके लिए अर्पित कर दिया है। उनके साथ तीन डाक्टर हैं, जिनमें दो मुफ्त काम करते हैं। इस अस्पतालमें प्लेगके सभी रोगियोंको लिया जाता है। उनकी सार-सँभाल भाई मूलचन्द, उनके भाई और दूसरे स्वयंसेवक करते हैं। रोगियोंको, जहाँतक सम्भव हो, खुली हवा में सुलाया जाता है। नागरिकोंने मुझे बताया कि जब माताएँ प्लेग से पीड़ित अपने बच्चोंको डरके मारे छोड़कर भाग निकलीं तब भाई मूलचन्दने ऐसे असहाय रोगियोंको अपने हाथमें लिया और उनकी सेवा-शुश्रूषा की। उनके प्रतापसे सैकड़ों बच गये हैं और सैकड़ों सुखसे मर सके हैं। उन्हींके प्रतापसे लोगोंको प्लेगका भय अब कम लगता है। मैं इस अस्पतालको देखनेके लिए गया। लगभग चालीस रोगी थे। सबसे मैं मिला। उनके सन्तोषका मैं क्या वर्णन करूँ ? मैंने तो मुल्तानमें रोगियोंके दर्शन करनेपर अपनेको सौभाग्यशाली माना।

एक भंगी भाई

भाई मूलचन्दने मेरी सबसे मुलाकात करवाई। वे अपने भंगी साथीको भी नहीं भूले; और उन्होंने कहा 'इस भाईने भी हमारी कठिन समय में बहुत मदद की है,' वह जरा दूर खड़ा हुआ था। मैं उस भाईसे मिलने के लिए आगे बढ़ा, वह विचारा आधा खिसक गया। मैंने उसे खिसकनेसे रोका और उसकी पीठको थपथपाया। मेरे साथ अनेक सनातनी भाई थे। मुझे ऐसी कोई बात दिखाई नहीं दी जिससे मुझे लगा हो कि उन्हें मेरा यह कार्य बुरा लगा हो; बल्कि में यह अवश्य देख सका कि उनमें से बहुत सारे लोग मेरे उस स्पर्श करनेपर प्रसन्न हो उठे थे । वह अन्त्यज भाई तो बहुत खुश हुआ और मुझसे कहा, 'मैंने तो कुछ भी नहीं किया'। इतना सच है कि पंजाबमें अस्पृश्यताका जोर बहुत कम है। कोई पंजाबी सनातनी भंगीके छू जाने से अपने आपको अपवित्र माने, ऐसी कोई बात मुझे नजर नहीं आई।

प्लेगका उपचार

इस अस्पतालके व्यवस्थापकोंको मैंने बताया कि मुझे तीन बारके प्लेग प्रकोपोंका अनुभव है;[१] और एक जगह तो प्लेगको जड़मूलसे उखाड़ने में मेरा हाथ था । अन्य दो अवसरोंपर भी यद्यपि प्लेगका बिलकुल नाश नहीं किया जा सका तथापि वह अच्छी तरहसे वशमें आ गया था। इसपर व्यवस्थापकोंने उसके उपचारके बारेमें मुझसे पूछा। हालाँकि हम सभी ये उपचार जानते हैं, फिर भी में यहाँ उनका उल्लेख किये देता हूँ :

१. प्लेगके रोगीको जहाँतक हो सके सबसे अलग रखा जाये; जो उसकी सेवा- शुश्रूषामें लगे हुए हों वे भी औरोंको न छुएँ ।

  1. १. राजकोटमें (१८९६), जोहानिसबर्गमें (१९०५) और अहमदाबादमें (१९१७-१८) ।