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सच्चे और झूठे


तीर्थस्थल है, इसलिए उनके लिए यह एक ऐसी भावनाकी चीज है जिसका आदर करना चाहिए, और अगर मुसलमान आदर्शवादी यहूदियोंको उतनी ही स्वतन्त्रतासे पूजन आदि नहीं करने देते जितनी स्वतन्त्रतासे स्वयं करते हैं तो यहूदियोंका शिकायत करना उचित होगा ।

इसलिए नैतिकता या युद्धके किसी भी नियम के अनुसार इस युद्धके परिणामस्वरूप फिलिस्तीन यहूदियोंको नहीं सौंपा जा सकता। या तो यहूदीवादियोंको फिलिस्तीन के सम्बन्ध में अपने आदर्श में परिवर्तन करना चाहिए, या अगर यहूदी धर्म में युद्धसे किसी सवालका निर्णय करनेकी छूट हो तो उन्हें मुसलमानोंके विरुद्ध 'धर्मयुद्ध' छेड़ना चाहिए, जिसमें उन्हें ईसाइयोंका समर्थन प्राप्त होगा। लेकिन आशा यही करनी चाहिए कि विश्व जनमतका जो रुख है, उसके कारण 'धर्मयुद्ध' एक असम्भव बात बन जायेगी और धार्मिक सवालों तथा मतभेदोंका समाधान अधिकाधिक शान्तिपूर्ण ढंगसे तथा कठोरतम नैतिक मान्यताओंके आधारपर होने लगेगा। लेकिन वह शुभ दिन आये या न आये, यह बात दिनके प्रकाशके समान स्पष्ट है कि अगर खिलाफतके सवालका न्यायसम्मत निपटारा होता है तो जजीरत-उल-अरबको खलीफाको धार्मिक प्रभुसत्ताके अधीन पूरी तरहसे मुसलमानोंके नियंत्रण में ही देना होगा।[१]

[ अंग्रजी से ]

यंग इंडिया, २३-३-१९२१


२४१. सच्चे और झूठे[२]

मुझे लगता है, "दुःशंकाओंके जो बादल घिरते आ रहे हैं”, उन्हें तो मैं दूर नहीं कर पाऊँगा, फिर भी पत्र-लेखकने जो मुद्दे उठाये हैं, उनपर प्रकाश डालने की कोशिश करूँगा। इसमें सन्देह नहीं कि यह एक सार्वजनिक आन्दोलन है, फिर



  1. १. इसके बाद फिलिस्तीनपर यहूदियोंके दावे सम्बन्धी पुस्तक इजराइल जैंगविल-कृत द वाइस ऑफ जेरूसलेमकी समालोचनाका एक छोटा-सा अंश दिया गया था ।
  2. २. पूनासे किसीने गांधीजीको एक पत्र लिखा था; उसके उत्तर में गांधीजीने यह टिप्पणी लिखी थी। पत्रमें कहा गया था कि: "कांग्रेस द्वारा पास किये गये असहयोग प्रस्तावको अब तीन महीने हो गये, लेकिन छात्र-जगत्ने उसके प्रति पर्याप्त उत्साह नहीं दिखाया है... उन्हें इस बातकी प्रतीति नहीं हो पाई है कि कालेजोंके बहिष्कारसे सरकार ठप कैसे हो जायेगी.... वे इसे सार्वजनिक आन्दोलन मानते हैं, और उनका खयाल है कि असहयोग सफल तभी हो सकता है जब अधिकांश लोग इसे अपने आचरण में उतारें । अभी तक पूनाके कालेजोंके सिर्फ २०० विद्यार्थी इसमें शामिल हुए हैं... सो भी कांग्रेसके आदेशका पालन करनेके लिए, अपनी अन्तरात्माको तुष्ट करनेके लिए नहीं. . . क्या असहयोग करनेवाले इन मुट्ठीभर लोगोंको व्यर्थ ही कष्ट उठाते रहना चाहिए और अपना भविष्य चौपट कर लेना चाहिए? यह सोच कर बहुतसे छात्र कालेजोंको वापस जा रहे हैं और इसपर कुछ अत्युत्साही लोग उन्हें "नैतिक दृष्टिसे कोढ़ी" कहकर उनकी भर्त्सना कर रहे हैं। कृपया इन सभी मुद्दोंपर प्रकाश डालें और दुःशंकाओंके जो बादल घिरते आ रहे हैं, उन्हें दूर करें ।"