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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


करता; मैं उसकी अन्धपूजा का विरोधी हूँ। जब मैं सरकारको नष्ट करना चाहता हूँ, तब मेरा मंशा अंग्रेजी भाषा नष्ट करनेका नहीं होता, बल्कि यह होता है कि अंग्रेजीको हम एक भारतीय राष्ट्रवादीकी तरह पढ़ें। राममोहन और तिलक (मेरी बात छोड़िए) चैतन्य, शंकर, कबीर तथा नानकके सामने कुछ भी नहीं हैं। इन सन्तोंकी तुलनामें इनका जनतापर कोई प्रभाव नहीं था। अकेले शंकरने जो कुछ कर दिखाया वह अंग्रेजी जाननेवालोंकी सारी फौज भी नहीं कर सकती। मैं ऐसे और भी बहुतसे उदाहरण दे सकता हूँ। क्या गुरु गोविन्द अंग्रेजी शिक्षाकी देन थे ? है कोई ऐसा अंग्रेजी जाननेवाला भारतीय जो गुरु नानकका मुकाबला कर सकता हो, जिन्होंने एक ऐसे सम्प्रदायका प्रवर्तन किया जिसके शौर्य और त्यागकी मिसाल नहीं मिलती ? क्या राममोहन रायने दलीप सिंह-जैसा एक भी शहीद पैदा किया है ? मैं तिलक और राममोहनका बड़ा सम्मान करता हूँ। मेरा विश्वास है कि यदि राममोहन और तिलक यह शिक्षा न प्राप्त करते और उन्हें स्वाभाविक प्रशिक्षण मिलता तो वे चैतन्यके समान और अधिक बड़े काम करते । यदि उन महामानवोंकी परम्पराको फिरसे जीवित करना है तो, ऐसा अंग्रेजी शिक्षासे नहीं किया जा सकता। मैं ही जानता हूँ कि हिन्दुस्तानी और संस्कृत न सीखकर में कितनी निधियोंसे वंचित रह गया हूँ। मेरा कहना यह है कि शिक्षाका मूल्यांकन आप उसकी सच्ची क्षमता और उसकी गरिमाके आधारपर करें । अंग्रेजी शिक्षाने हमें नपुंसक बना दिया है, हमारी प्रज्ञा कुंठित कर दी है। जिस तरह यह शिक्षा दी जाती है, उसके कारण हम कमजोर और कायर बन गये हैं। हम स्वतन्त्रताकी धूप तो सेंकना चाहते हैं परन्तु दास बनानेवाली यह पद्धति हमारे राष्ट्रको नपुंसक बनाये डाल रही है। अंग्रेजोंसे पहलेका समय गुलामीका समय नहीं था। मुगल शासनमें हमें एक तरहका स्वराज्य प्राप्त था। अकबरके समय में प्रतापका पैदा होना सम्भव था और औरंगजेबके समय में शिवाजी फल-फूल सकते थे। १५० वर्षोंके ब्रिटिश शासनने क्या एक भी प्रताप और शिवाजीको जन्म दिया है ? कुछ सामंती देशी राजा जरूर हैं पर वे सबके सब राजनीतिक अंग्रेज कारिन्देके सामने घुटने टेकते हैं और अपनी दासता स्वीकार करते हैं। जब में नवयुवकोंको देशी राजाओंके खिलाफ शिकायत करते हुए पाता हूँ तब मुझे उनसे सहानुभूति होती है। वे दुहरी परेशानी भोग रहे हैं। देशी राजाओंके अत्याचारोंके लिए मैं दोष उन्हें नहीं, बल्कि ब्रिटिश विजेताओंको देता हूँ। वे लोगोंको गुलाम बनाकर रखनेवाली प्रणालीके शिकार हैं। इसलिए मेरी आप सबसे अपील है कि इस पिशाची सरकारके पंजेसे छूटिए। यदि आपको द्वार-द्वार भीख मांगनी पड़े तो उसकी भी परवाह न कीजिए। गुलामीमें रहने से भीख माँगते हुए मरना बेहतर है। हमें इस योग्य होना चाहिए कि हम शासन सँभाल सकें। आज देशका शासन कौन सँभाल रहा है ? अंग्रेज ? नहीं। इसे वे भारतीय ही सँभाल रहे हैं, जिन्होंने गुलामी स्वीकार कर रखी है। यदि अंग्रेज इसी समय इस देशको छोड़कर चले जायें तो मैं जरा भी दुःखी नहीं होऊँगा। मैं उनसे कहता हूँ कि वे सेवकों, बराबरीके व्यक्तियों और दोस्तोंकी हैसियत से हमारी मदद करें। मैं अपनी सहमतिसे उन्हें अपने ऊपर राज्य नहीं करने दूंगा। वे चाहें तो हवाई सेना, स्थल सेना, नौसेनाका उपयोग कर सकते हैं, किन्तु हमारी सहमतिसे