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पत्र : सी० एफ० एन्ड्रयूजको

पहनने, अदालतों में न जाने, विदेशी कपड़ा न पहनने और चरखा चलानेकी बातको गुनाह माना जाये तो इसमें आश्चर्यकी कोई बात नहीं। जब हम सब इन अपराधोंको करने लगेंगे तभी स्वराज्य होगा या यह राज्य अपनी पद्धतिको बदलेगा। क्योंकि अगर हम सत्यपर दृढ़ हो जायें तो तीनमें से एक ही बात हो सकती है: (१) सरकार राज्यनीतिमें परिवर्तन कर लोकमतका अनुसरण करे (२) राज्यनीतिको न बदलकर जन-मतको अपराध मानकर असंख्य व्यक्तियोंको जेल भेजनेका व्यर्थ प्रयत्न करे अथवा (३) उससे लोकनीति सहन न हो सके और वह लोगोंका दमन भी न कर सके तो हिन्दुस्तानको छोड़ दे।

यह तीनों स्थितियाँ हमारे लिए अभीष्ट है। चौथी वस्तु मेरी कल्पनासे परे है। और वह यह कि मुट्ठी-भर नेताओंके पकड़े जानेपर लोग अपनी धर्मनीतिका त्यागकर जिस सरकारकी नीतिकी वे आज भर्त्सना करते हैं, उसके अधीन हो जायें। मुझे उम्मीद है कि वह समय अब लद गया है।

[ गुजरातीसे ]

नवजीवन, २७-३-१९२१


२४७. पत्र : सी० एफ० एन्ड्रयूजको

पुरी

२८ मार्च, [ १९२१ ][१]

प्रिय चार्ली,

अभी-अभी तुम्हारा पत्र मिला। आशा है अब तुम्हारी तबीयत पहलेसे अच्छी होगी। तुम्हें इतनी जल्दी-जल्दी बीमार नहीं पड़ना चाहिए। कैलेनबैक[२] मुझे बताया करते थे कि किसी जर्मन सिपाहीके पैरोंमें छाले आदि पड़ जानेको अपराध माना जाता है; तब ईश्वरके एक सिपाहीके लिए बीमार पड़ना क्या अपराध नहीं है ? काश ! तुम मेरी इस बातसे सहमत होते कि नियम ऐसा ही है। मुझे याद है मेरे बीमार पड़नेपर तुमने क्या कहा था। मैंने तो एकदम मान लिया था कि अवश्य ही मैंने नियमका कोई उल्लंघन किया होगा।

इससे गुरुदेवकी बात याद आई। मेरी बीमारी मेरे [ रंगरूट ] भरती[३] आन्दो- लनकी उचित सजा थी, यह बात मैं निःसंकोच मान भी लूं, तो भी 'ट्रिब्यून' में उद्धृत गुरुदेवके पत्र—जिसे एक मित्रने 'यंग इंडिया' में जवाब देनेके लिए मेरे पास भेजा है—से निकलनेवाली अन्य बातोंसे में सहमत नहीं हो सकता। मैंने उसे एक बार सरसरी तौरपर पढ़ा है, और मेरे मनमें यही विचार आया कि असहयोगके सहज सौन्दर्य और कर्त्तव्यको वे नहीं समझ पाये हैं।


  1. १. लिफाफेपर लगी डाककी मुहरसे ।
  2. २. हरमान कैलेनबैक, जर्मन वास्तुकार । दक्षिण आफ्रिका गांधीजीके सहयोगी ।
  3. ३. प्रथम विश्व युद्ध में मित्र-राष्ट्रोंकी सहायताके लिए, १९१८ के शुरूमें ।