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जो अन्य किसी कारणसे उसे स्वीकार नहीं करना चाहता तो वह सच्चा असहयोगी नहीं कहलायेगा। यदि हम ऐसे व्यक्तियोंको कांग्रेसके पदाधिकारियोंके रूपमें निर्वाचित नहीं कर सकते, तो इसका अर्थ यह नहीं है कि हम उनके प्रति अनुदारता बरतें अथवा उनका अपमान करें। इसके विपरीत, जो सज्जन कांग्रेसके प्रस्तावका अनुसरण करने में ईमानदारीसे असमर्थ हैं, वे सब प्रकारसे हमारी सहानुभूतिके पात्र हैं।

फिर, 'पत्रिका ' का यह सोचना भी ठीक नहीं है कि इसके पहले कि वकालत करनेवाले वकील अपनी वकालत छोड़ें, अदालतोंका पूर्ण बहिष्कार हो जाना चाहिए, और चूँकि बिना विद्रोही सरकारके यह असम्भव है, और चूंकि हम विद्रोह करनेकी बात नहीं सोचते, अतः वकालत करनेवाले वकीलों द्वारा पहलेके समान जनताका नेतृत्व कर सकने में खतरेकी बात नहीं है। इस सुझावके पीछे स्पष्ट ही एक भ्रान्ति है। यदि इसका तर्क-सम्मत निष्कर्ष निकाला जाये, तो उसका अर्थ होगा कि किसी भी नेताके यह आवश्यक नहीं कि वह जो कहता है उसपर स्वयं भी अमल करे। तथ्य यह है कि श्री नेहरू और श्री दासके[१] त्यागसे तथा जनता द्वारा कांग्रेसके प्रस्तावको कार्यान्वित न करनेवाले पेशेवर वकीलों अथवा अन्य लोगोंको कोई भी सार्वजनिक प्रतिष्ठा न देनेके हमारे निश्चयके परिणामस्वरूप अदालतोंका पूर्ण बहिष्कार भले न हुआ हो, लेकिन हमने अदालतोंकी प्रतिष्ठाको, और इसलिए उसी हदतक सरकारकी प्रतिष्ठाको, सफलतापूर्वक मिट्टीमें मिला दिया है। यदि हम खिताबधारियों, वकीलों तथा दूसरोंको बावजूद इसके कि वे हमारे आह्वानपर आगे नहीं आये हैं, पुनः प्रतिष्ठा देने लगेंगे, तो हम राष्ट्रीय आत्मघात करेंगे। अतः 'पत्रिका' का यह गलत तर्क है कि कांग्रेसने वकीलोंको वकालत छोड़नेका आदेश इसलिए दिया है कि कांग्रेस उनकी सेवाएँ अपने लिए उपलब्ध करना चाहती है। जैसा कि मूल प्रस्तावकी प्रस्तावनामें स्पष्ट कहा गया है, इस आदेशका उद्देश्य सरकारकी प्रतिष्ठाको खत्म करना है, और इसके लिए ऐसी संस्थाओंके साथ असहयोग करना जरूरी है, जिनपर सरकारकी प्रतिष्ठा आधारित है।

[ अंग्रेजी से ]

यंग इंडिया, ३०-३-१९२१


  1. १. पण्डित मोतीलाल नेहरू और चित्तरंजन दासने अपनी वकालत और उससे होनेवाळी बेशुमार आमदनीको तिलांजलि दे दी थी ।

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