परन्तु आज तो मैं जो कुछ कर रहा हूँ, उसे बुजुर्ग लोग ऐसा मानते हैं कि मैं उनके साथ अन्याय कर रहा हूँ; उनका खयाल है कि जिस सत्यके आग्रहका में दावा करता हूँ, उससे भी मैं थोड़ा डिग गया हूँ; और जिस विवेकका दावा करता रहा हूँ, मेरी आजकलकी भाषामें वह भी नहीं बचा है। इन सब बातोंको मैं सोचता हूँ; ओर मेरी आत्मा कहती है कि ऐसा नहीं है। मैं अविवेकपूर्ण भाषाका इस्तेमाल नहीं करता। मैं जो कहता हूँ वह शान्तिसे, सोच-समझकर कहता हूँ। बात यह है कि मैं पिछले दिसम्बरतक[१] जिस भ्रममें था, मेरा वह भ्रम भंग हो गया है और इस कारण आज मेरे मुँहसे जो भाषा निकलती है, वह कुछ अलग है। परन्तु बात जैसी है, वैसी ही मैं कह रहा हूँ। मुझे जो कुछ गन्दा जान पड़ता है उसे गन्दा न कहनेसे सत्यका भंग और अविवेक होता है। जो चीज जैसी है उसे वैसा ही बतानेमें विवेकका भंग नहीं है और सत्यका पालन है। यद्यपि एकान्तिक सत्य तो मौनमें ही है, फिर भी जब भाषाका प्रयोग करना पड़ता है, तब उसमें सम्पूर्ण सत्य तो तभी आयेगा, जब में स्थितिको जैसी पाऊँ, वैसी ही व्यक्त करूँ।
‘लीडर’ में पण्डितजीका[२] एक व्याख्यान आया है। उनसे उसके प्रकाशनकी अनुमति ले ली गई थी। उसके एक वाक्यकी ओर में आपका ध्यान दिलाना चाहता हूँ। वाक्य है: ‘सब कुछ सोच-समझकर जो तुम्हारी अन्तरात्मा कहे, सो करो।’ मैं भी यही बात कहना चाहता हूँ। यदि आपकी अपनी अन्तरात्माकी सच्ची आवाजके बारे में कुछ भी सन्देह रह जाये, यदि आप स्वयं मनमें निर्णय न कर पायें तो मेरी न मानें, किसी दूसरेकी भी न मानें, केवल मेरे पूज्य भाई साहब, पण्डितजीकी ही मानें। मालवीयजीसे बड़े धर्मात्मा मैंने नहीं देखे। जीवित भारतीयोंमें मुझे उनसे ज्यादा भारतकी सेवा करनेवाला भी कोई दिखाई नहीं देता। पण्डितजीमें और मुझमें, दोनोंमें कैसा सम्बन्ध है? मैं तो दक्षिण आफ्रिकासे आया, तभीसे उनका पुजारी हूँ। मैंने अपने दुःख अनेक बार उनके आगे रोये हैं और उनसे आश्वासन प्राप्त किया है। वे तो मेरे बड़े भाईके समान हैं।
मेरा ऐसा सम्बन्ध है। इसलिए में तो यह कह सकता हूँ कि आप मेरे कहे अनुसार तभी करें जब आपके दिलसे यह आवाज निकले कि जो गांधी कहता है वही सत्य बात है। परन्तु यदि आपको ऐसा लगे कि दोनों हमारे नेता हैं, दोनोंमें से एकको चुनना है तो आप पण्डितजीका ही कहना मानें। जरा भी अन्देशा हो तो आप मेरी बात न मानें; यदि मानेंगे तो उससे आपका अहित ही होगा। पण्डितजी विश्वविद्यालयके कुलपिता हैं; पण्डितजीने उसकी स्थापना की है; वे उसकी आत्मा हैं और उनका आदर करना हमारा धर्म है। इस मामले में मैं मानता हूँ कि पण्डितजी भूल रहे हैं। इस बारेमें आपको लेशमात्र भी शंका हो तो आप लोग मेरी बात न मानें। मेरे पास एक सज्जन आये। उन्होंने कहा कि आप काशी जायेंगे; परन्तु इस समय पण्डितजीकी तन्दुरुस्ती नाजुक है। आपके वहाँ जाने से उन्हें सस्त आघात