पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 19.pdf/५४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२६
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

पहुँचेगा, और पण्डितजीको गँवा बैठनेकी नौबत आ सकती है। कहीं आपका काशी पहुँचना पण्डितजीकी मृत्युका कारण न बन जाये। पण्डितजीकी मृत्युका कारण में कैसे बन सकता हूँ? पण्डितजीकी आत्मा तो मर नहीं सकती परन्तु उन सज्जनको मेरे काशी जानेमें पण्डितजीकी मृत्यु दिखाई दी। उन्होंने कहा, ‘लड़के आपका कहना मानेंगे, वे विश्विवद्यालय से निकल जायेंगे, पण्डितजीको अपना जीवन-कार्य नष्ट हुआ दिखाई देगा और इससे उनका शरीरान्त हो जायेगा। मुझे इसपर कुछ हँसी आई। मुझे ऐसा लगा कि ये सज्जन पण्डितजीको नहीं जानते। पण्डितजी कोई कायर नहीं हैं कि ऐसी बातसे प्राण छोड़ दें।

यह सही है कि विद्यालय पण्डितजीका प्राण है। परन्तु मेरी समझमें उससे भी अधिक भारत उनका प्राण है। पण्डितजी आशावादी ठहरे। पण्डितजीका दृढ़ विश्वास है कि कोई भी भारतका बुरा करने में समर्थ नहीं है। भारतकी बागडोर किसीके हाथमें नहीं; वह ईश्वरके हाथमें है और उसका कल्याण करनेवाला ईश्वर विद्यमान है। फिर भी मैंने पण्डितजीको तार[१] दिया और पण्डितजीने मीठे शब्दोंमें जवाब दिया कि मैं काशी पहुँचूं।

पण्डितजीका यह खयाल है कि आप लोगोंमें से कुछ लोग बिना विचारे कदम उठा रहे हैं और बिना विचारे आप कुछ भी करेंगे तो स्थान-भ्रष्ट हो जायेंगे। परन्तु यदि आप लोगोंको ऐसा लगे कि इस संस्था में पढ़ना पाप है तो आप इसे तुरन्त छोड़ दें; पण्डितजी आपको आशीर्वाद देंगे। परन्तु यदि आपकी आत्मा प्रज्वलित नहीं है तो आप मेरे बजाय पण्डितजीकी ही सुनें।

हमारा काम तभी अन्तरात्मा से प्रेरित हो सकता है जब अपने-आपमें वह स्वच्छ हो, उसका हेतु स्वच्छ हो और उसका परिणाम भी स्वच्छ हो। परन्तु उसपर एक और भी बन्धन शास्त्रोंने लगा रखा है। जो संयमी है; जो अहिंसा, सत्य एवं अपरिग्रहका पालन करनेवाला है, वहीं कह सकता है कि मुझे अन्तरात्माका आदेश हुआ है। यदि आप ब्रह्मचारी नहीं हैं, आपके हृदयमें दया नहीं है, मर्यादा नहीं है, सत्य नहीं है तो आप अपने किसी कामको अन्तरात्मासे प्रेरित नहीं कह सकते। परन्तु यदि आपका हृदय वैसा है जैसा मैंने वर्णित किया है, यदि आपने पश्चिमके ढंगका त्याग कर दिया है, आपके स्वच्छ हृदय-मन्दिरमें प्रभुका निवास है तो आप अपने माँ-बापका भी सविनय अनादर कर सकते हैं। उस स्थितिमें आप स्वतन्त्र हैं और इसलिए आप कदम उठा सकते हैं। मुझे मालूम है कि पश्चिममें स्वेच्छाचारकी हवा बह रही है। परन्तु भारतीय विद्यार्थियोंको में स्वच्छन्द नहीं बनाना चाहता। यदि इस पवित्र काशी क्षेत्रमें, इस पवित्र स्थानमें, मैं आपको स्वेच्छाचारी बनाना चाहूँ तो में अपने कार्यके योग्य नहीं।

मैं लड़कोंसे ऐसा क्यों कह रहा हूँ कि पाठशाला छोड़ना धर्म है? क्या मैं उनका विद्यार्थी जीवन नष्ट करना चाहता हूँ? नहीं। में स्वयं अभीतक विद्यार्थी-जीवन बिता रहा हूँ; विद्यार्थी ही हूँ। परन्तु में कहना चाहता हूँ कि जिसे स्वतन्त्रताकी

  1. देखिए “तार: मदनमोहन मालवीयको”, २०-११-१९२० के आसपास