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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


इसलिए विचार करें तो हम देखेंगे कि स्वराज्य प्राप्त करनेके लिए हम कितनी आत्मशुद्धि करें, इसकी कोई सीमा नहीं है। शुद्धि जितनी जल्दी होगी स्वराज्य उतनी जल्दी मिलेगा ।

स्वराज्य अर्थात् धर्म-राज्य । यदि शासनकी वर्तमान पद्धतिके स्थानपर हम ऐसी ही कोई दूसरी पद्धति दाखिल करें तो वह स्वराज्यमें नहीं खपेगी; उसके द्वारा लोककल्याण नहीं होगा। जिस तरह स्वराज्यकी प्राप्तिकी कुछ शर्तें हैं वैसे ही उसके कुछ लक्षण भी हैं। अपने नडियादके भाषणमें मैंने स्वराज्यके लक्षणोंका जिक्र किया था। किसी अन्य अवसरपर उनके सम्बन्धमें एक लेख लिखूंगा ।

इस बीच हमें इतना तो समझ ही लेना होगा कि हमारा आत्मशुद्धिका दावा अगर सही है तो हमें अपने व्यवहारको लगातार सुधारते जाना होगा। चींटीसे लेकर हाथीतक सबके हकोंकी जाँच करके हमें उनके अधिकार उन्हें देना होगा। ऐसा करनेपर संसार बिना मांगे ही हमें हमारे अधिकार दे देगा; इस सम्बन्धमें किसीको कोई भी सन्देह नहीं होना चाहिए ।

इस राज्यको शासनकी इस नीतिको अगर हम राक्षसी राज्य और राक्षसी नीति मानें तो हमें स्वयं ऐसी नीतिका परित्याग करना होगा। हमारे ऐसा करनेके साथ ही वह नीति स्वयमेव नष्ट हो जायेगी । इसीसे मैं कह रहा हूँ कि हम सात महीनेमें स्वराज्य प्राप्त कर सकते हैं। क्योंकि जो करना है सो हमें ही करना है और वह काम मात्र विचार परिवर्तनका ही है। हम अपने विचार बदल दें तो उनके अनुरूप अपने आचरणमें परिवर्तन करनेमें तनिक भी देर नहीं लगेगी।

मैं आशा करता हूँ कि कोई पाठक ऐसा आरोप नहीं लगायेगा कि मैं दिन- प्रतिदिन स्वराज्यकी शर्तें बढ़ाता जाता हूँ । ज्ञानी पाठक समझ जायेंगे कि मैं स्वराज्यकी शर्तोंको हल्का और आसान करता जाता हूँ ।

हमें इस राक्षसी नीतिको या तो ज्यादा बड़ा राक्षस बनकर रोकना होगा अथवा उससे अलग रहकर, उसका सर्वथा त्याग करके उसे मिटाना होगा। पाप और अन्याय किसी भी समय अपने बलपर नहीं टिक सकते। उन्हें हमेशा सहारा चाहिए । इसीसे सब धर्मोकी यह शिक्षा है कि पापके साथ असहयोग करना परमधर्म है लेकिन यदि वैसा करके हमें पापनीतिको दूर करना हो तो हमें चाहिए कि हम प्रत्येक क्षण विचार करके अपने जीवनको पापसे बचायें। इस तरह पापनीति खुद-ब-खुद टूट जायेगी ।

[ गुजरातीसे ]

नवजीवन, ५-४-१९२१