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(२) क्या मुसलमान फिलिस्तीनपर दावा करते हैं, या वे उसे यहूदियोंको, जो कि उसके मूल स्वामी हैं, वापस कर देंगे ?

मुसलमान दावा करते हैं कि फिलिस्तीन जजीरत-उल-अरबका अविभाज्य अंग है। वे पैगम्बरकी आज्ञाके अनुसार उसपर कब्जा बनाये रखनेके लिए बाध्य हैं। किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि यहूदी और ईसाई फिलिस्तीनमें बे-रोक टोक आ जा नहीं सकते, या वहाँ बसकर अचल सम्पत्तिके स्वामी नहीं हो सकते। हाँ, गैर-मुसलमान जो चीज नहीं कर सकते, वह यह है कि वे वहाँ अपना एक सम्पूर्ण प्रभुतासम्पन्न क्षेत्राधिकार स्थापित नहीं कर सकते। यहूदी उस स्थानपर सम्पूर्ण प्रभुतासम्पन्न वह अधिकार नहीं प्राप्त कर सकते, जिसपर धार्मिक विजयके अधिकारसे मुसलमानी शक्तियोंका सदियोंसे कब्जा रहा है। पिछले युद्धमें मुसलमान सैनिकोंने अपना खून इसलिए नहीं बहाया कि वे फिलिस्तीनको मुसलमानी नियंत्रणसे बाहर किसी दूसरेको समर्पित कर दें। मैं चाहता हूँ कि मेरे यहूदी मित्र भारतके सात करोड़ मुसलमानोंकी स्थितिपर निष्पक्ष भावसे विचार करें। एक स्वतन्त्र राष्ट्रके नाते क्या वे अपनी पवित्र मिल्कियतका एक ऐसे ढंगसे छीना जाना बर्दाश्त कर सकते हैं जो उनकी दृष्टिमें विश्वासघातपूर्ण है ?

नये वाइसराय

मैं समझता हूँ कि लॉर्ड रीडिंगके सम्बन्धमें असहयोगियोंका कर्त्तव्य स्पष्ट है । जहाँ एक ओर हमें स्वागतके किन्हीं प्रदर्शनों में भाग नहीं लेना चाहिए, वहाँ दूसरी ओर विरोधी प्रदर्शन भी नहीं करना चाहिए, और न होने देना चाहिए। अंग्रेजोंसे हमारा कोई झगड़ा नहीं है, अंग्रेज अधिकारियोंसे भी नहीं है। हम तो उस प्रणालीको नष्ट करना चाहते हैं, और अवश्य करेंगे, जिसके अनुसार शासन करना उनकी जिम्मेदारी है, क्योंकि हम उस समूची प्रणालीको एक मूर्तिमान बुराई मानते हैं। हमें व्यक्तिके रूपमें भी उन अधिकारियोंसे अपनेको अलग रखना चाहिए जिन्होंने सर माइकेल ओ'डायर तथा जनरल डायरके समान भारतके साथ अन्याय किया है और जो उसके प्रति वफादार नहीं रहे। लार्ड रीडिंगके सामने स्वर्ण अवसर है। वे उस जातिके हैं, जिसे सुन्दर कल्पना- शक्ति प्राप्त है। वे जानते हैं कि 'परिया' कहते किसे हैं, अछूत होने, समाजसे बहिष्कृत होनेका क्या अर्थ होता है और वह कैसा अनुभव करता है। यदि वे असहयोगियोंके मामलेपर निष्पक्षतापूर्वक विचार करें और उन्हें उनके दावोंकी पैरवीमें सफलता मिले, तो उन्हें स्वयं भी असहयोगी बन जाना चाहिए। उन्हें असहयोगियोंसे उन लोगोंको क्षमा करनेके लिए नहीं कहना चाहिए जो स्पष्ट रूपसे अपनी गलती स्वीकार करके पश्चात्ताप प्रकट नहीं करते। उन्हें मुसलमानोंसे यह नहीं कहना चाहिए कि वे अपने न्याय-संगत दावोंको त्याग दें और न हिन्दुओंसे कहना चाहिए कि वे अपने साथी देशभाइयोंको मँझधारमें छोड़ दें । अन्तमें, वाइसराय महोदयको लंकाशायरके हितके लिए अथवा और किसी हेतुसे भारतसे यह नहीं कहना चाहिए कि वह अपने जन्मसिद्ध अधि कारकी प्राप्तिका प्रयत्न स्थगित कर दे। अतः एक ऐसे वातावरणका सामना करनेके लिए जो भारतीयोंके सर्वथा खिलाफ है, वाइसराय महोदयको अत्यन्त दृढ़ इच्छाशक्तिसे काम लेना होगा। असहयोगियोंको भी ऐसा कुछ नहीं करना चाहिए जिससे उनकी