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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


कठिनाइयाँ बढ़ें । हमें वाइसराय महोदयको इस बातका पूरा-पूरा श्रेय देना चाहिए कि उनका मंशा हमारा भला करनेका है। किन्तु मैं जनताको यह चेतावनी भी देना चाहता हूँ कि उसे इसी आशाके सहारे नहीं बैठे रहना चाहिए कि लॉर्ड रीडिंग कुछ करेंगे ही। यह लड़ाई तो ऐसी है जिसमें हमें अपनी सहायता आप करनी होगी, आत्म- निर्भरतासे काम लेना होगा। हमें अपनी स्वतन्त्रताका पोषण करनेके लिए आवश्यक वातावरण स्वयं ही तैयार करना पड़ेगा और जो अनेक बातें हमें करनी ही चाहिए उनमें से एक है अपने आदर्श व्यवहारसे ईमानदार और सच्चे किस्मके स्त्री-पुरुषकी सद्भावना प्राप्त करना ।

कुछ कसौटियाँ

श्री टी० बी० पुरोहितने असहयोगके बारेमें कुछ सुसंगत प्रश्न पूछे हैं। उत्तर देनेसे पहले, कदाचित् यही ठीक होगा कि कुछ कसौटियाँ निर्धारित कर दी जायें। असह- योगका मुख्य अभिप्राय है आत्मशुद्धि करना — एक अन्यायी एवं पश्चात्तापकी भावनासे रहित सरकारसे असहयोग करके आत्मशुद्धि करना। गौण उद्देश्य है समस्त सरकारी नियन्त्रण अथवा निगरानीसे स्वतन्त्र रहकर अपने-आपको असहाय होनेकी भावनासे मुक्त करना, अर्थात् यथासम्भव सभी मामलोंमें अपना शासन आप चलाना। और इन दोनों उद्देश्योंको पूरा करनेके दौरान किसी भी व्यक्तिको अथवा सम्पत्तिको हानि पहुँचाने या उसके प्रति हिंसाका प्रयोग करनेसे स्वयं भी हाथ खींचना तथा और अन्य किसीको भी उस दिशामें प्रोत्साहित न करना ।

अब हम श्री पुरोहितके प्रश्नोंको इस आधारपर देखें :

(१) क्या कोई असहयोगी किसी पंजीकृत पुस्तकालय अथवा वाचनालय- का सदस्य बना रह सकता है ?

यदि मैं सदस्य होता, तो मैं पहले अपने साथी-सदस्योंको प्रेरित करता कि वे उस पुस्तकालयका पंजीयन समाप्त करवायें; और यदि मैं ऐसा न कर पाता, तो मैं अपनी सदस्यतासे त्याग-पत्र दे देता और उस (पुस्तकालय) को सरकारसे विच्छिन्न रखनेका आन्दोलन करता ताकि लोग आत्मनिर्भरता और स्वतन्त्रताका अनुभव कर सकें ।

(२) क्या कोई असहयोगी मौजूदा पंजीयित सहकारी ॠण समितियों अथवा ऐसे बैंकोंका सदस्य बना रह सकता है, जिनका प्रबन्ध केवल जनता द्वारा सामान्य जनहित के लिए होता है ?

मुझे ऐसी संस्थाओंका कुछ अनुभव है और मुझे यह कहनेमें कोई संकोच नहीं कि सरकारसे उनका पंजीयन कराना उनके स्वतन्त्र विकासमें बाधा पहुँचाता है और सरकारपर लोगोंकी निर्भरताको बढ़ाता है। ऐसी संस्थाओंकी स्थापना एक उत्तम विचार है और उसका पोषण किया जाना चाहिए; हमें यह नहीं सोचना चाहिए कि बिना सरकारकी सहायता अथवा देखरेखके ऐसी समितियाँ पनप नहीं सकतीं। पंजीयन के पक्षमें बहुधा जो तर्क पेश किये जाते हैं, उन्हें मैं जानता हूँ। किन्तु यदि उनका विश्लेषण किया जाये, तो पाया जायेगा कि वे सब हमारे अपने आपमें विश्वासकी कमी- को प्रदर्शित करते हैं। अतः मैं इस मामलेमें भी पहले तो अपने साथी-सदस्योंको विश्वास