बाबू भगवानदासके[१] विद्वत्तापूर्ण व्याख्यानका[२] एक भाग मुझे सदा याद आता रहता है। उन्होंने कहा है कि यदि हमारे राज्यकर्त्ता वणिक बनकर राज्य करें, और साधारण चीजोंका ही नहीं, भांग-गांजे-जैसे नशेके साधनोंका व्यापार करें, तब वे अधम बन जाते हैं और हमें उनका त्याग कर देना चाहिए। इस हुकूमतने हिन्दुस्तानको नापाक कर दिया है। आबकारी विभाग बढ़ता ही जा रहा है। गोखलेजी-जैसे लोगोंने पाठशालाएँ बढ़ानेकी आवाज उठाई थी, परन्तु स्थिति यह है कि सन् १८५७ में पंजाबमें ३०,००० पाठशालाएँ थीं, और आज वहाँ ५,००० हैं। सरकारने इतनी पाठशालाएँ खत्म कर दीं। सरकारमें योजना-शक्ति है। हममें भी है। परन्तु हमें उसने भ्रममें रखा है। वह हमें स्वराज्यका कौनसा पाठ पढ़ायेगी? धारासभामें जाकर हम स्वराज्यका क्या सबक सीखेंगे? स्वराज्य-शक्ति सीखना चाहते हो तो अरबोंके पास जाओ, बोअरोके पास जाओ। मैं तो कहता हूँ कि हममें आज भी स्वराज्य-शक्ति है, परन्तु हम सिंह होते हुए भी अपनेको बकरी मान बैठे हैं। जब यह भावना उत्पन्न हो जाये कि जिनमें आत्मा है, उन्हें कौन डरा सकता है, तब सच्ची शिक्षा मिली समझिए। ऐसी तालीम पा लेने के बाद ही आप दूसरी साधारण शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं। आज तो आप ऐसी शिक्षा पा रहे हैं जिससे बेड़ियाँ और अधिक मजबूत हो जायें। डिग्रियोंपर मुग्ध होनेके कारण हम आज कह रहे हैं कि हमें चार्टर चाहिए। हम इन पेड़ोंके नीचे क्यों नहीं पढ़ते? हमें बड़ी-बड़ी शानदार इमारतें क्यों चाहिए? देशमें जहाँ कितने ही मनुष्योंको पूरा खानेको नहीं मिलता, जहाँकी स्त्रियाँ बदलनेको दूसरे कपड़े न होने के कारण कई दिनोंतक स्नान नहीं कर पातीं, वहाँ आप लोगोंको पढ़ने-लिखने के लिए बड़े-बड़े महल चाहिए? ऐसा आग्रह हो तो आप असहयोगको भूल जायें। देशके लिए दर्द हो, मेरे अन्दर जो आग जल रही है, वही आपके भीतर जल रही हो तो मकान-वकानकी बात भूल जाइए और जैसा मैं कहता हूँ वैसा असहयोग कीजिए। यदि आप ऐसा करेंगे तो जो प्रतिज्ञा मैंने अन्यत्र[३] की है, इस पवित्र स्थानमें उसे फिर दुहराता हूँ कि हमें एक वर्ष में स्वराज्य मिल जायेगा।
मैं बार-बार कहता हूँ कि स्वराज्य तभी मिलेगा जब आप अपना धर्म पहचानेंगे। जयनाद करनेसे वह नहीं मिल सकता। मैं ये बातें क्यों कह रहा हूँ? मुझे धन-दौलत नहीं चाहिए, मान-सम्मान नहीं चाहिए, भारतका राज्य नहीं चाहिए; मुझे तो भारतकी आजादी चाहिए। लोग मुझसे कहते हैं कि आप दूसरोंसे मिल जाइये। परन्तु में मिल नहीं सकता; अपने हृदयके मतके विरुद्ध में किसीसे मिलकर एक नहीं हो सकता, अन्तरात्माकी आवाजको धोखा देकर एक नहीं हो सकता; में सिद्धान्तकी बातको छोड़कर नहीं मिलना चाहता। और सिद्धान्तकी बात यह है कि स्वराज्य लेना हो, तो
- ↑ (१८६९-१९५९) सुप्रसिद्ध दार्शनिक और लेखक; काशीकी प्रसिद्ध राष्ट्रीय शिक्षा-संस्था काशी विद्यापीठके प्रथम कुलपति; उत्तर प्रदेश कांग्रेसके एक प्रमुख नेता; भारत-रत्नकी उपाधिसे सम्मानित।
- ↑ मुरादाबादमें ९, १० और ११ अक्तूबरको हुए राजनीतिक सम्मेलन में अध्यक्ष पदसे दिया गयाँ भाषण।
- ↑ सितम्बर १९२० में कलकत्ताके विशेष कांग्रेस अधिवेशनमें।