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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

प्रत्येक आदमीको आजाद होना चाहिए। जितना स्पष्ट आप सामनेके पेड़ोंको देख रहे हैं, उतना ही स्पष्ट जब आपकी अन्तरात्मा प्रत्यक्ष यह अनुभव करे कि यह सल्तनत राक्षसी है, इसकी दी हुई शिक्षा लेना पाप है, लेफ्टिनेंट गवर्नर कितना ही कहें कि हमारा विश्वविद्यालयपर कोई नियंत्रण नहीं है, फिर भी वे अप्रत्यक्ष रूपसे अपना असर उसपर डाल सकते हैं। यदि आपको यह प्रतीति हो जाये कि इस हुकूमतसे शिक्षा प्राप्त करना देशके प्रति बेवफाई है तो आप एक क्षण भी इस विद्यालय में न रहें, इसके पास भी न फटकें।

मैं कहता हूँ कि आप इस धधकती आगसे दूर हो जाएँ; अन्य सारी जोखिम उठा लीजिये। दूसरे प्रश्न मुझसे न पूछें। यह न पूछें कि विद्यार्थी फिर क्या करें। यह न पूछें कि प्रोफेसर नहीं है, मकान नहीं है, पढ़ेंगे कहाँ। ताकत हो तो अपने-अपने घर चले जाओ। घर ही आपका विश्वविद्यालय है। विनयी बनो, सत्यशील बनो तो तुम्हारा घर ही विश्वविद्यालय है। परन्तु इन प्रासादोंसे (विद्यालयके मकानोंकी ओर इशारा करके) उसकी तुलना करना चाहोगे तो आपका पतन हो जायेगा । इन प्रासादोंके प्रति यदि आपकी आसक्ति है तो आप भ्रष्ट हो चुके हैं। इन महलों और घरोंमें क्या साम्य है? विलायतमें [घरों और विद्यालयोंमें] तो कुछ-कुछ साम्य होता है, परन्तु यहाँ वह इतना भी नहीं; यहाँ तो ये [भवन] निरे लूटके पैसोंसे बने हैं। जो स्वतंत्र नहीं है वह तो ईश्वरका नाम भी सुखपूर्वक नहीं ले सकता। आप आज ही अपनी शारीरिक, मानसिक और आत्मिक स्वतन्त्रता प्राप्त कर सकते हैं; यदि इस विद्यालय से निकलकर कोई नारायणका नाम जपे, राम-नाम भजे तो वह भी बहुत बड़ी शिक्षा है, ऐसा विश्वास जिसे हो जाये, वह उपर्युक्त तीनों प्रकारकी स्वतन्त्रता प्राप्त कर चुका समझिए। भारतके विद्यार्थियों में में ऐसी रूह फूंक सकूं, तो मैं उनमें से स्वराज्यकी सेना खड़ी कर सकता हूँ। मैं कहता हूँ कि इस सल्तनतकी हवा जबतक इन पाठशालाओं में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूपमें असर कर रही है, तबतक इन पाठशालाओंको छोड़े बिना कोई चारा ही नहीं है। परन्तु यदि आपमें आत्मविश्वास न हो तो आप जहाँ हैं, वहीं बने रहें।

यहाँ दो सौ विद्यार्थियोंन विद्यालय छोड़ने की प्रतिज्ञा ली है। इससे मुझे दुःख हुआ। दुःख प्रतिज्ञा लेने से नहीं हुआ। दुःख इस बातसे हुआ कि कहीं बादमें इन विद्यार्थियों में अविश्वास पैदा न हो जाये। आप लोग यह मानते हैं कि गांधी कोई जादूगर है, वह पलक मारते ही विद्यालय भी बना देगा। यह आपकी भूल है। तब तो में आपसे कहता हूँ कि अनारम्भ प्रथम बुद्धि-लक्षण है। आप लोग इतना सोचे-विचारे बिना विद्यालय छोड़ेंगे तो मैं पापका भागी बनूंगा। मैं तो कहता हूँ कि आप विद्यालय छोड़कर घर बैठें, इस आगसे बचें। आपमें आत्म-विश्वास होगा, तो आप आज ही विद्यालय भी बना सकेंगे। परन्तु जैसा पण्डित जवाहरलालने और अलीगढ़ में मुहम्मद अलीने कहा है, बिना किसी शर्तके विद्यालय छोड़ें। सात हजार बार गरज हो, तो छोड़ें, नहीं तो वापस चले जायें। और छोड़कर वापस जाना हो, तो छोड़े ही नहीं। यदि हम अपने धर्मका पालन न करें, तो हमारा देश अपना नहीं बचता। आपकी प्राचीन संस्कृति और पवित्रताका नाम लेकर में आपसे जो कह रहा हूँ, उसका