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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


उल्लेख किया है। धन बाहर जानेकी बात छोड़ दें तो भी देशकी इतनी बड़ी जनसंख्याको जबरन निठल्ला बना देनेसे उसकी गरीबी दिन-दिन बढ़ती गई है। समस्या यह है कि शेष व्यवस्थामें कोई गड़बड़ी पैदा किये बिना राष्ट्रके इन अरबों घंटोंका उपयोग कैसे किया जाये। चरखेको पुनः चालू करना ही एकमात्र सम्भव उपाय है। मशीनोंके विषय में मेरे अपने निजी विचारोंसे अथवा विदेशी वस्तुओंके सामान्य बहिष्कारसे इसका कोई सम्बन्ध नहीं है। लगता है कि भारत इस वर्षके भीतर-भीतर इस उपायको पूरी तरह अपना लेगा । समस्याके साथ खिलवाड़ करना पागलपन होगा। मैं यह लेख पुरीमें[१] लिख रहा हूँ, जहाँसे मुझे हिलोरें मारता हुआ सागर दिखाई पड़ रहा है। स्वयं जग- न्नाथ जहाँ विराजते हों वहाँ जीवित कंकाल-जैसे पुरुषों, स्त्रियों और बच्चोंकी भीड़का चित्र मेरी आँखोंके आगे घूमता रहता है। यदि मेरी चले तो मैं सभी स्कूल-कालेजों तथा अन्य सब स्थानोंमें दूसरे और सब कार्य बन्द करा दूं और वहां कताईका काम शुरू करा दूं । इन्हीं लड़कों और लड़कियोंमें से कताई-शिक्षक तैयार करूँ, प्रत्येक बढ़ईको चरखे बनानेके लिए प्रेरित करूँ और शिक्षकोंसे कहूँ कि इन जीवनदायी यन्त्रोंको घर-घर पहुँचा दो और सभीको कताई सिखाओ । यदि मेरी चले तो मैं रत्तीभर भी कपास देशसे बाहर न जाने दूं और इन घरोंमें ही उसका सूत तैयार करा दूं। मैं इस सूतको प्राप्त करने तथा उसे बुनकरोंमें वितरित करनेके लिए सारे भारतमें जगह-जगह डिपो खुलवा दूं । यदि पर्याप्त संख्यामें सच्चे और प्रशिक्षित कार्यकर्त्ता मिलें, तो मैं इसी वर्षके भीतर कंगालीको भारतसे निकाल बाहर करनेका काम शुरू कर दूं। इसके लिए निस्सन्देह हमारे दृष्टिकोणमें तथा राष्ट्रकी रुचिमें परिवर्तनकी आवश्यकता है। मैं सुधारों[२] तथा उससे सम्बन्धित सभी चीजोंको अफीमके समान मानता हूँ, जो हमारे विवेकको सुला देती है। जिस समस्याकी गम्भीरता निरन्तर बढ़ती जा रही है, हम उसको धीरजके साथ हल करनेके लिए पीढ़ियोंतक ठहरनेके लिए तैयार नहीं हैं। प्रकृति शुद्ध न्याय करती है, वह उसमें कोई दया नहीं दिखाती । यदि हम जल्दी नहीं जागे, तो हमारा अस्तित्व मिट जायेगा। मैं संदेहशील सज्जनोंको उड़ीसा आनेके लिए, उसके गाँवोंमें जानेके लिए, और स्वयं यह पता लगा लेनेके लिए आमन्त्रित करता हूँ कि भारतकी असली स्थिति क्या है। तब मेरे समान उन्हें भी विश्वास हो जायेगा कि विदेशी वस्त्रकी एक चीर रखना या पहनना भी भारतके प्रति तथा मानवताके प्रति कितना बड़ा अपराध है। मैं भूखा रहकर आत्मघात नहीं कर रहा हूँ तो केवल इस- लिए कि मुझे भारतके जाग उठने और इस विनाशकारी कंगालीसे मुक्त होनेके. मार्गपर बने रहनेकी उसकी सामर्थ्यपर विश्वास है। ऐसी सम्भावनामें विश्वास न हो, तो मुझे जीनेकी कोई चाह बाकी नहीं रह जायेगी। मैं प्रश्नकर्ताको और दूसरे हर समझदार देशप्रेमीको, प्रत्येक घरमें चरखेका प्रवेश कराके कताईको देशव्यापी बनाने, और इस वर्षके भीतर-भीतर विदेशी कपड़ेके पूर्ण बहिष्कारमें सहायता करके कताईको लाभप्रद बनानेकी गौरवमयी राष्ट्रीय सेवामें भाग लेनेके लिए आमंत्रित करता


  1. १. जगन्नाथपुरी; गांधीजी वहाँ २८ मार्च, १९२१ को गये थे ।
  2. २. १९१९के भारत सरकार अधिनियममें समाविष्ट मॉन्टेग्यु-चैम्सफोर्ड सुधार ।