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हूँ। मैंने सभी प्रश्नोंके उत्तर देनेका प्रयत्न किया है। व्यावहारिक दृष्टिसे सबसे अधिक महत्वपूर्ण प्रश्न कताईके बारेमें था । आशा है कि भारतकी गरीबीसे निबटने-सुलझनेके एकमात्र उपायके रूपमें घर-घर कताईकी आवश्यकता मैंने सिद्ध कर दी है । तथापि मैं जानता हूँ कि इस सिद्धान्तको कार्यान्वित करने में कार्यकर्ताके सामने असंख्य कठि- नाइयाँ हैं। सबसे बड़ी कठिनाई शायद ठीक चरखा प्राप्त करनेकी है। पंजाबको छोड़कर, जहाँ यह हुनर अभीतक जीवित है, अन्य स्थानोंमें यह बड़ी ही वास्तविक कठिनाई है। बढ़ई चरखा बनाना भूल गये हैं, और बेचारे कार्यकर्ता किंकर्तव्यविमूढ़ हैं। इसलिए निस्सन्देह ही कार्यकर्ताका मुख्य काम यही है कि वह स्वयं चरखा बनाने और चलानेकी कला सीख ले। मैं उनके परीक्षणके लिए कुछ साधारण कसौटियाँ रख रहा हूँ। कोई भी चरखा, जो इन कसौटियोंपर खरा नहीं उतरता, न तो स्वीकृत किया जाना चाहिए और न वितरित ।

(१) चरखेका चक्का सरलतासे, बिना रुकावटके और बिना आवाज़ किये घूमना चाहिए।

(२) घुमानेका हत्था धुरीमें दृढ़ताके साथ बैठा हो ।

(३) पहिया जिन डंडोंपर सधा होता है उनका मजबूतीसे बैठा होना जरूरी है। उनकी चूलें ठीक होनी चाहिए।

(४) तकुआ बिना आवाज किये तथा चमरखोंमें बिना कम्पन उत्पन्न किये घूमना चाहिए। चमरखे जबतक या तो पंजाबके समान मूँजके या मजबूत कपड़ेके नहीं बनाये जाते, तबतक चरखेकी कर्कश ध्वनि दूर नहीं होगी।

(५) कोई भी चरखा सुनिर्मित नहीं कहा जा सकता, यदि वह किसी अभ्यस्त कातनेवालेके हाथसे एक घंटेमें छ: नम्बरका कमसे-कम २३ तोला सम और ठीक बटका सुत न निकाल सके। मैं एक लड़केको जानता हूँ, जिसका अभ्यास शायद तीन महीनेसे अधिकका नहीं था, फिर भी उसने ३५ मिनटमें इस किस्मका ढाई तोला सूत काता । चरखा उपयोगके लिए तबतक नहीं दिया जाना चाहिए जबतक वह कमसे- कम पूरे एक घंटेतक इस ढंगसे चलाकर देख लेनेपर सन्तोषजनक न पाया गया हो ।

[ अंग्रेजीसे ]

यंग इंडिया ६-४-१९२१