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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


यहाँ चला आता । लेकिन मैंने अपने मनमें यही सोचकर सन्तोष मान लिया कि आप लोग यह कदापि पसन्द न करेंगे कि मैं ऐसा निर्णय करूँ। मैं इससे पहले नेलौर न आ सका, इसके लिए भी आप मुझे क्षमा कीजिएगा।

जैसे ही मैंने सुना कि नेलौरके हिन्दुओं और मुसलमानोंके बीच अनबन है, मैंने यहाँ आने तथा आप लोगोंके बीच कुछ समय बितानेका विचार कर लिया था। मैं यह जानना चाहता था कि ऐसे कौन हिन्दू या मुसलमान हैं जो यह पसन्द करें कि चाहे स्वराज्य विलम्बसे मिले, चाहे खिलाफत और पंजाबके अन्यायोंका निवारण न किया जाये, लेकिन हम अपना लड़ना-झगड़ना बन्द नहीं कर सकते। आप कहते हैं कि यह नगर बहुत प्राचीन है। मैं आशा करता हूँ कि आप भारतके अन्य भागोंसे पीछे नहीं रहेंगे और न दूसरोंको अपने विषयमें यह कहनेका मौका देंगे कि नेलौरके हिन्दू और मुसलमान आपसमें भाई-भाईकी तरह नहीं रह सकते। मैं अनेक कारणोंसे अबतक यहाँ नहीं आ पाया था, किन्तु मैंने आप लोगोंके झगड़ेका कारण जाननेका प्रयत्न किया । आप यह कहनेके लिए मुझे क्षमा करें कि वे कारण भी उतने ही निन्द्य हैं जितनी इन दो बड़ी जातियोंके बीच पैदा हुई फूट निन्द्य है। मुझे मालूम हुआ है कि नेलौरके मुसलमान, अथवा यों कहा जाये कि नेलौरके अधिकांश मुसलमान, हिन्दुओंको ऐसे उत्सव नहीं मनाने देते जिनमें बाजा या संगीत आवश्यक हो । वे मसजिदोंके सामनेसे बाजेके साथ कोई जुलूस नहीं निकलने देते। मुसलमानोंका कहना है कि कुछ ही बरसों पहले यहाँके हिन्दू निवासी गाजे-बाजेके साथ ऐसा कोई जुलूस निकालनेकी माँग पेश भी नहीं करते थे। हिन्दू लोग क्या कहते हैं सो मुझे मालूम नहीं है। मैं यहाँ अपने हिन्दू तथा मुसलमान भाइयोंके सम्बन्धमें कोई निर्णय देनेके लिए नहीं आया हूँ। लेकिन हिन्दू-मुस्लिम एकताका एक विशेषज्ञ होनेकी हैसियतसे मैं पूर्ण विनयके साथ आपके समक्ष आपके मनन तथा आपकी स्वीकृतिके लिए कुछ ऐसे मौलिक सिद्धान्त प्रस्तुत करना चाहता हूँ जो स्थायी हिन्दू-मुस्लिम एकताके लिए अनिवार्य हैं। एक सनातन- धर्मावलम्बी हिन्दू होनेके नाते, अपने धर्मका ध्यान रखते हुए और यह आशा करते हुए कि यदि हिन्दू धर्म कसौटीपर चढ़ा हो तो एक सनातनी हिन्दू होनेकी हैसियतसे मैं इसके निमित्त अपने प्राणोंका बलिदान करनेके लिए सबसे पहली कतारमें खड़ा हूँगा। सर्वप्रथम मैं अपने हिन्दू भाइयोंसे कहना चाहता हूँ कि यदि आप अपने देशवासी मुसलमानोंके साथ शान्ति और मैत्रीके साथ रहना चाहते हैं तो ऐसा करनेका केवल एक ही मार्ग है कि किसी भी दशामें उनकी धार्मिक उत्कटतापर आघात न करें और यह अनुभव करते हुए भी कि उनकी माँगें अनुचित और अन्यायपूर्ण हैं, आप झुक जायें और उनकी बात मान लें। लेकिन उस अनुचित माँगके सामने झुक जानेके साथ एक शर्त भी है, वह यह कि उनकी माँगें आपके धार्मिक सिद्धान्तोंके अति महत्वपूर्ण अंगोंका अतिक्रमण न करती हों। मैं एक घरेलू उदाहरण देता हूँ। यदि मेरे देशके मुसलमान भाई यह माँग करें कि अपने मन्दिर जाना मैं बन्द कर दूं तो मैं उनकी माँग कदापि पूरी न करूंगा, फिर उनकी दोस्ती हासिल हो या न हो; और ऐसा करनेमें मुझे अपने प्राण भी भले ही न्यौछावर क्यों न करने पड़ें। गायकी रक्षा करना मैं