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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


विदेशी परिधान

मूर्तिको जो वस्त्र पहनाये जाते हैं वे विदेशी हैं। हमारे जीवनमें इतना अज्ञान और इतना अविचार क्यों है ? मूर्तियोंके वस्त्रोंके लिए तो असंख्य कुमारिकाएँ प्रेमपूर्वक महीन सूत कातती थीं और बुनकर उसे प्रेमपूर्वक बुनते थे । अन्य वस्त्र अपवित्र माने जाते थे। मैं इस विचारमें डूब गया कि पण्डे अब ऐसे पाखण्डी और विदेशी वस्तुओंके ऐसे प्रेमी कैसे बन गये । अन्य स्थानोंकी ही भाँति यहाँ भी पण्डोंसे बहुत ज्यादा त्रास होता है। भावुक यात्रियोंको वे लूटते हैं। जगन्नाथजी इस सब अत्याचारके साक्षी बन- कर चुपचाप कैसे बैठे रहते हैं ? इसपर मुझे "जैसे पुजारी वैसे देव" वाली कहावत याद हो आई । निराकार ईश्वर क्या कुछ कम अत्याचारोंका साक्षी बनता है। वह तो कर्म के विधानकी रचना करके तटस्थ हो गया है, तो फिर जगन्नाथजीका क्या दोष ?

हृदयविदारक हृदय

जैसे मुझे अनेक जानने योग्य वस्तुएँ दिखाई जाती हैं वैसे ही मुझे अकालग्रस्त लोगोंके दर्शन भी करवाये गये । वे हड्डियोंके ढाँचे-भर रह गये थे; मांस-स्नायुसे हीन इन सैकड़ों स्त्री-पुरुष और लड़के-लड़कियोंको देखकर मैं बहुत दुःखी हुआ, मेरा हृदय बिध गया। यदि इस तरह इन अकाल-पीड़ित लोगोंको अन्न न मिले और वे भूखों मरें तो स्वराज्य मिले या न मिले, उसका कुछ अर्थ ही नहीं रहता ? स्वराज्य तो उसे ही कहा जायेगा जिसमें एक भी व्यक्ति अपनी इच्छाके विरुद्ध भूखा अथवा नंगा न रहे। हां, उसमें उसीकी गलती हो तो बात दूसरी ।

अनाथालय

इस मन्त्रको रटते हुए मैं पुरी-पुलिस अधीक्षक लाला अमीचन्द द्वारा स्थापित अनाथालय देखने गया । यहाँ अकाल-पीड़ितोंको इकट्ठा किया गया है और उन्हें चटाई, पायदान बुनना और सूत कातना बुनना सिखाया जाता है। कातना-बुनना तो असहयोग आन्दोलनके शुरू होनेके बाद सिखाया जाने लगा है। इससे मैं देख सका हूँ कि कताई अकाल-निवारणका एक साधन है — यह वाक्य कतई गलत नहीं है । इस बारेमें मैंने नेताओंके साथ बातचीत की जिसके फलस्वरूप पुरी अकाल-कोषमें जो रुपये बचे हैं उनका उपयोग अकाल-पीड़ित लोगोंके घरोंमें चरखा दाखिल करनेमें किये जानेका प्रस्ताव पास किया गया ।

[ गुजरातीसे ]

नवजीवन, १०-४-१९२१