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भाषण: विद्यार्थियोंकी सभा, बनारसमें

बातको मैं धर्म समझता हूँ उसके लिए प्यारीसे-प्यारी वस्तुको भी त्याग दूँ। मैं आज ऐसा ही कर रहा हूँ। मैं आपसे कहना चाहता हूँ कि मेरे भाई और मुझमें बड़ा मतभेद है, पर इसके कारण मेरा पूज्यभाव थोड़ा भी कम नहीं है। आपसे भी मेरी प्रार्थना है कि यदि आप मेरी भी रायके हों तो भी उनके प्रति अपने पूज्यभावमें कदापि कमी न करें।

[किसी भी परिस्थितिमें] विद्यादान लेना यदि आप पाप न समझें, अधर्म न मानें तो आप कभी विद्यालयोंको न छोड़ें। मैं तो अधर्मीके हाथसे स्वर्ण-दान भी नहीं ले सकता। इसी तरह जहाँ उसकी ध्वजा फहराती है, वहाँ विद्या लेना दोष समझता हूँ। वहां पर ‘गीता’ पढ़ना, कला-कौशल तक सीखना भी मैं पाप समझता हूँ। सच तो यह है कि मैं इस सल्तनतमें ही नहीं रहना चाहता। अगर एकदम त्याग सकता तो त्याग देता। लेकिन तब मैं यहाँ कैसे आता और यह पैगाम भी आपको कैसे दे पाता। इसी कारण इस असह्य स्थिति में भी जी रहा हूँ। मैं इसको रावण-राज्य समझता हूँ तुलसीदासजीने ऐसे राज्य में रहना पाप बतलाया है। मैं निस्संकोच यह कह सकता हूँ कि मैं २४ घंटे एक ही जप करता हूँ कि इसे कैसे हटा सकूँ या दुरुस्त कर सकूँ। इसीसे में यहाँ हूँ। विद्यार्थियोंसे मैं कहता हूँ कि इस सल्तनतसे सहकार छोड़ना ही हमारा परम धर्म है। जितना आपसे सम्भव है, उतना कीजिए। आपके लिए सबसे बड़ी चीज यही है कि यहाँ जो विद्या-दान आपको मिलता है, उसका त्याग कर दें। मैं सर्व सामान्य सहकारके बारेमें नहीं कहता। विद्यार्थी जो विशेष सहकार देते हैं, वही देना बन्द करनेको कहता हूँ। यदि आपका इस सल्तनतके बारेमें वही खयाल हो जो मेरा है तो अपना धर्म समझकर इसे छोड़ दीजिए। इसमें कोई शर्तकी बात नहीं है कि फिर विद्या किस प्रकार मिल सकेगी। मैं तो आपको धर्म बताता हूँ। सबसे यही कहता हूँ कि दूसरे स्थानपर चाहे विद्या मिलनेका प्रबन्ध हो चाहे न हो, इसे आप छोड़ दें। आप अगर चाहें जो इसी किस्मकी विद्या ले सकते हैं, लेकिन सरकारकी छाया त्याग दें। मैं यह कहना चाहता हूँ कि यह आजीविकाकी बात नहीं है, मनुष्यत्वकी बात है। मनुष्यत्वके बाद ही आजीविकाकी बात आ सकती है। स्वतन्त्रता धर्म है। धर्मके पीछे देह है। देहके लिए धर्म नहीं छोड़ा जा सकता, लेकिन धर्मके लिए देह छोड़ी जा सकती है। हमें आर्थिक, मानसिक, आत्मिक किसी प्रकारकी स्वतन्त्रता नहीं है। आत्मिक नहीं, क्योंकि मुसलमानोंको धर्मके हुक्मपर चलने से रोका जा रहा है, फुसलाया जा रहा है कि इसमें [धर्मके हुक्मपर न चलनेका] दोष नहीं है। धार्मिक खयालात रोके जाते हैं, अर्थात् आत्मिक स्वतन्त्रता भी नहीं है। यहाँपर करोड़ोंके पास न वस्त्र है न अन्न। ऐसी अवस्था में आर्थिक स्वतन्त्रता असम्भव है। ऐसी हालत में जो कुछ लाभ भी है उसे छोड़ देना चाहिए। कई बातोंका हमें लालच दिया जाता है, फायदा दिखलाया जाता है। इस विश्वविद्यालयमें भी कई बातोंकी सुविधा है। इंजीनियरीकी तालीम मिलती है; और बातोंकी भी आसानी है। किन्तु हिन्दुस्तान के लाभके लिए इसका बलिदान करना चाहिए। यदि ऐसा थोड़ा-थोड़ा लाभ हम स्वीकार करते रहे तो यह राज्य चलता रहेगा।