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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

हिन्दू धर्म असहयोग सिखलाता है। कुछ लोगोंका खयाल है कि तलवार उठानी चाहिए, लेकिन सब लोगोंने देख लिया है कि फिलहाल हममें वैसी ताकत नहीं है। असहयोग ही एकमात्र उपाय है जिससे या तो स्वतन्त्रता मिल जायेगी या सल्तनतकी खराबियाँ हट जायेंगी। मुझे विश्वास है कि जो-कुछ मालवीयजी कर रहे हैं उसे अपना धर्म समझकर कर रहे हैं। मतभेदके कारण मेरा उनका परस्परका स्नेह कम नहीं हो सकता। हमारी उनकी मैत्री कम नहीं हो सकती और मुझे आशा है कि उनके प्रति आप लोगोंका पूज्य भाव भी कभी कम न होगा। आप ऐसा न समझिएगा कि आपमें बुद्धि ज्यादा है और उनमें कम, या आपमें देश-भक्ति ज्यादा है, उनमें कम। सब आदमियोंका एक ही विचार होना असम्भव है। यदि हिन्दुस्तानके प्रत्येक स्त्री-पुरुषका एक ही भाव हो जाये तो स्वतन्त्रता एक दिन में मिल सकती है। इतिहाससे मालूम होता है कि स्वतन्त्रता बड़े कष्टसे मिलती है। यह समझना अनुचित होगा कि बिना इस कष्टको उठाये हमें स्वतन्त्रता मिल जायेगी। मेरी प्रार्थना है कि आप अपनी सभ्यता और नम्रता न छोड़िएगा। यदि आपको मेरी बातें पसन्द हों तो [ठीक है, किन्तु] जो विद्यार्थी आपके साथ न हों उनसे घृणा या द्वेष न कीजिएगा, उन्हें न सताइएगा। अपना काम इस तरहसे कीजिए कि जो शक लोगोंके मनमें हो वह निकल जाये। विश्वविद्यालय छोड़ने के बाद आप धर्माचरण ज्यादा करें तो मालवीयजी का आशीर्वाद लेकर विश्वविद्यालय छोड़ें। जो इसे छोड़ने के बाद मुल्ककी सेवा न करेंगे, जो स्वार्थी, व्यसनी हो जायेंगे, उनके कारण मुझे बड़ा ताप होगा। उनको भी पाप होगा और मुझे भी पाप लगेगा। मेरी प्रार्थना है कि जो-कुछ आपको करना हो स्वयं सोचकर कीजिए। आपको यदि किसी दूसरेकी सलाह ही माननी है, यदि आपका दिल कुछ साफ नहीं बतलाता तो आप पंडितजीकी ही सलाह मानिए, उनकी सलाहको प्रथम स्थान दीजिए। अगर आपका दिल स्वीकार करे तो आप अपना धर्म समझ कर असहयोग कर सकते हैं। न आप मेरी सलाहपर भरोसा कीजिए न उनकी सलाहपर। मेरे भाई साहब आपको अवश्य आशीर्वाद देंगे, एक क्षणके लिए भी आपको न रोकेंगे।

अब मैं यह कहना चाहता हूँ कि असहयोगमें विद्यार्थियों द्वारा यह त्याग मैंने क्यों रखा है। मेरा दृढ़ विश्वास है कि हिन्दुस्तान में जो सल्तनत चल रही है, वह जो अत्याचार कर रही है उसके कायम रहनेका बड़ा भारी सबब यह है कि हमको उसकी तालीमके असरन मुग्ध कर लिया है। इसके यहाँ दाखिल होने के पहले हम स्वाश्रयी थे, जैसे पराधीन आज हैं, वैसे नहीं थे। इस शिक्षा-प्रणालीसे हम और भी पराधीन हो गये। लेकिन अभी मैं इस तालीमके ढंगकी बात नहीं करता। मेरा इस वक्त यह कहना नहीं है कि ढंगमें त्रुटियाँ हैं। यह तो मेरे भाई साहब भी मानते हैं कि ऐसी त्रुटियाँ हैं, जिन्हें निकाला जाना चाहिए। मैं [त्रुटियोंके कारण] इन शिक्षण संस्थाओंको छोड़नेका नहीं कहता। मैं अभी यह भी नहीं कहता कि क्या ढंग होना चाहिए। इसका सबब यह है कि जिस सल्तनतको हम राक्षसी समझते हैं, जिसने पंजाबमें इतना अत्याचार किया, उसकी छाया में शिक्षा लेना में अधर्म समझता हूँ। अगर ऐसा ही आपको