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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

चायके प्यालेमें तूफान

एक जिला मजिस्ट्रेटका चायपानका निमन्त्रण स्वीकार कर लेनेपर ‘लीडर’ने श्री मुहम्मद अलीपर जो आक्षेप किया है वह मुझे ऐसा ही दिखाई दिया है। अखबारोंकी टिप्पणियाँ पढ़नेका मुझे बहुत ही कम अवसर मिल पाता है। किन्तु मैंने संयोगसे २५ नवम्बरका ‘लीडर’ पढ़ा। उसमें यह पढ़कर मुझे निश्चय ही दुःख हुआ। यह अखबार सुलझी हुई चुस्त और तीखी टिप्पणियाँ लिखनेके लिए प्रसिद्ध है। फिर भी उसका प्रहार [प्रायः] अनुचित नहीं होता। किन्तु मेरी समझमें मौलाना मुहम्मद अली सम्बन्धी उसकी टिप्पणी एक अनुचित प्रहार ही है। असहयोग-सम्बन्धी प्रस्ताव में सरकारी समारोहोंका बहिष्कार किया गया है। उसमें किसी चाय पार्टीके अवसरपर अधिकारियों और सार्वजनिक लोगोंके बीच व्यक्तिगत बातचीतको निषिद्ध नहीं माना गया है। जहाँ 'लीडर'को मौलाना मुहम्मद अलीके इस कार्य में विसंगति दिखाई देती है वहाँ वह मुझे एक सज्जनोचित कार्य ही लगता है। वह इस बातका प्रमाण प्रस्तुत करता है कि यह आन्दोलन न तो घृणापर आधारित है और न वह व्यक्तिशः अंग्रेजोंको लक्ष्यमें रखकर चलाया गया है। उसके द्वारा केवल एक ऐसी प्रणालीको नष्ट करने का प्रयत्न किया जा रहा है जिसे अच्छेसे अच्छा अंग्रेज भी सह्य नहीं बना सकता। उसका उद्देश्य शुद्धीकरण है, प्रतिशोधात्मक या दण्डात्मक विनाश नहीं। मेरी राय में यदि श्री मुहम्मद अली जिला मजिस्ट्रेटके चाय पीने और बातचीत करनेके निमन्त्रणको ठुकरा देते तो वे एक लोकसेवक के रूपमें अपने कर्त्तव्यके पालनसे च्युत माने जाते। हाँ, यदि जिला मजिस्ट्रेट अपनी प्रतिष्ठाकी रक्षा या वृद्धि करनेके उद्देश्यसे कोई सार्वजनिक समारोह करते तो दूसरी बात होती।

कुरुचि

मेरी विनम्र सम्मतिमें ऐसी ही कुरुचिका उदाहरण ‘लीडर’ की वह रोषपूर्ण टिप्पणी भी है जो उसने पंडित मोतीलाल नेहरूपर, होमरूल लीगकी होनेवाली बैठकपर पंजाब सरकार द्वारा रोक लगाई जानेकी कार्रवाईके सम्बन्धमें भेजे गये उनके तारको लेकर लिखी है। कहते हैं, पंडित मोतीलाल नेहरूने तारमें यह कहा कि इस निषेधाज्ञाका पालन किया जाना चाहिए क्योंकि [यहाँ] सविनय अवज्ञा अवांछनीय है। इस तारके पीछे जो सराहनीय आत्मसंयम है उसको देखनेके बजाय ‘लीडर’ ने यह कह कर पंडित मोतीलाल नेहरूकी हँसी उड़ाई है कि वे तात्कालिक उपयोगिताकी नीतिका यहाँ आश्रय लेनेपर उतर आये हैं। यदि पंडितजीने सविनय अवज्ञाकी सलाह दी होती, यदि सरकार हिंसा करती और लोग उसका उत्तर हिंसासे देते तो 'लीडर' का नाराज़ होता ठीक होता। मैं तो ‘लीडर’ से ‘लीडर’ विरोधियोंके प्रति भी न्याय करनेकी आशा करता हूँ। असहयोगका ध्येय सार्वजनिक जीवनको शुद्ध बनाकर और अहिंसात्मक अर्थात् शिष्टतापूर्ण या विनम्र साधनोंसे लोकमतको प्रेरित करके स्वराज्य प्राप्त करना है। मैं मानता हूँ कि असहयोगी सामूहिक रूपसे अपने व्यवहारमें नम्रताका समावेश नहीं कर पाये हैं। लेकिन उनकी प्रवृत्ति निश्चय ही उसी ओर है। अब हम पंडितजी की सलाहकी अच्छाई-बुराईपर विचार करें। पुराने शब्दोंको नये मूल्य मिल रहे हैं।