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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

संगीनोंसे भयभीत है और इसलिए खुशी-खुशी सिक्खों तथा गोरखोंके हथियारोंका उपयोग कर लेना चाहता है। वह असहयोगके सन्देशको अच्छी तरह नहीं समझ पाया है। अपनी भयकी अवस्थामें वह यह नहीं देखता कि अंग्रेजोंके पाशविक बलके स्थानमें दूसरे पाशविक बलकी स्थापना भारतकी बुराइयोंका वास्तविक उपाय नहीं है। यदि हथियारोंसे ही भारतके भाग्यका निर्णय होता है तो वे हथियार केवल सिक्खोंके या गोरखोंके नहीं बल्कि समस्त भारतके होने चाहिए। यह सबसे बड़ी शिक्षा है जो हमें यूरोपसे मिलती है। यदि राज्य सदा पाशविक बलका ही रहना है तो फिर या तो भारतके बच्चे-बच्चेको समर-कौशल सीखना पड़ेगा या फिर उसे उस देशी या विदेशीके चरणों में, जिसके हाथमें तलवार है, सिर झुकाकर रहना पड़ेगा। उस हालतमें करोड़ों लोग डंडेके बलपर हाँके जानेवाले मूक पशुओं-जैसे ही बने रहेंगे। असहयोग लोगोंको उनके गौरव और शक्तिका भान करानेका एक प्रयास है। यह तभी सम्भव है जब उन्हें यह समझाया जा सके कि वे अपनी अन्तरात्माको पहचान-भर लें तो पाशविक बलसे भय करने की जरूरत नहीं रहेगी।

हमें डोगरों, सिक्खों, गोरखों तथा भारतकी अन्य सैनिक जातियोंकी जरूरत है, मगर वह अंग्रेज सैनिकोंसे युद्ध करनेके लिए नहीं बल्कि इसलिए है कि वे हमें पराधीन बना रखने में अंग्रेज सैनिकोंको सहायता न दें। हम चाहते हैं कि हमारा यह वर्ग इतना समझ ले कि वह ब्रिटिश अफसरोंकी आज्ञासे तलवार चलाकर अपनी तथा हमारी गुलामीको स्थायी ही बनाता है। वे इसे समझ लें कि इसका समय तब आयेगा जब उक्त लेखकके जैसे विचार रखनेवाले लोगोंके दलका लोप हो जायेगा और जब सैनिक वर्ग भी अहिंसाको आवश्यकताको समझ जायेगा।

पत्र प्रेषक जब यह कहता है कि केवल विदेशी चीजों, पुलिस तथा सेनाकी ओर ध्यान दिया जाये तब मुझे उसपर सन्देह होता है। इसका अर्थ तो यह हुआ कि बिना बलिदानके आन्तरिक एकताकी स्थापना हो जाये। जो वर्ग अबतक लोकमतका नेतृत्व कर रहे हैं उन्हें किसी प्रकारका त्याग अर्थात् अपना शुद्धीकरण न करना पड़े; जबकि असहयोगकी पूरी लड़ाई इन्हीं वर्गीके इर्द-गिर्द चल रही है। सम्भव है कि अभी ऐसा लगा हो कि असहयोगने विसंवाद उत्पन्न कर दिया है। वस्तुतः शुद्धीकरणकी क्रिया पूरी हो जानेपर इससे असली एकता स्थापित हुए बिना न रहेगी।

इसके अतिरिक्त लेखक यह बात भी नहीं समझ पाया है कि हमारे संघर्ष में किंचित भी छिपाव-दुराव न होनेके फलस्वरूप हमें कितनी शानदार सफलता प्राप्त हुई है। मेरी रायमें लोगोंने इस समय, खुल्लमखुल्ला, जैसी निर्भीकता से अपने विचार व्यक्त किये हैं वैसा पहले कभी नहीं हुआ। उन्होंने राजद्रोहके कानूनका अत्यन्त अस्वाभाविक भय तो लगभग त्याग ही दिया है। ऐसा लगता है कि लेखक जब गुप्त समितियोंकी चर्चा करता है तब वह बीते हुए जमानेकी बात कह रहा है। आप गोपनीयताके अस्वच्छ तरीकोंसे इस महान् राष्ट्रको उसकी पूरी उठानतक नहीं ले जा सकते। हमें चाहिए कि हम दिन-दहाड़े, खुले-आम, साहसके साथ आन्दोलन चलाकर इस प्रकार गुप्त तथा इस पुलिस विभागको निरस्त्र कर दें जो गोप-