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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

है कि अभिभावकोंकी इच्छा मालूम होते ही नाटक ऐन वक्तपर रोक दिया गया था। अवश्य ही पहले नाटक खेलनेका आग्रह किया गया होगा और उससे लोगों में नाराजी पैदा हुई होगी।

लेकिन इसमें मेरी साफ राय यह है कि उत्तेजनाके चाहे जितने कारण क्यों न रहे हों “नवयुवकोंकी [उत्पाती] भीड़” का उपद्रव करना उचित कदापि नहीं ठहराया जा सकता। यदि लड़कियों के अभिभावकोंको आपत्ति नहीं थी तो जिस नाटकको खेलनेका अन्ततोगत्वा निश्चय किया जा चुका था, उसे रोकनेका उन्हें कोई अधिकार न था। जनतन्त्रवादीकी सबसे खरी कसौटी यही है कि प्रत्येक मनुष्य जैसा चाहे वैसा कर सके; बशर्ते कि उससे किसी दूसरे मनुष्यके जीवन और धन-मालको क्षति न पहुँचती हो। जनताकी नैतिकताकी रक्षा हुल्लड़ मचाकर नहीं की जा सकती। समाज केवल लोकमतसे ही शुद्ध और स्वच्छ रह सकता है। यदि धारवाड़के युवक यह पसन्द नहीं करते हैं कि धारवाड़की लड़कियाँ मंचपर सार्वजनिक रूप से अपना प्रदर्शन करें तो वे सार्वजनिक सभाएँ करते और अन्य प्रकारसे अपने पक्षमें लोकमत बनाते। असहयोग आन्दोलनका उद्देश्य इस हुल्लड़ जैसी सभी अनुचित कार्रवाइयोंको रोकता है। निश्चय ही असहयोगियोंसे धारवाड़-जैसी हिंसात्मक वारदातोंमें हिस्सा न लेनेकी अपेक्षा की जाती है। इतना ही नहीं बल्कि वे दूसरोंको भी रोकें। जिस हदतक असहयोगी हिताकारी शक्तियोंपर नियन्त्रण कर सकेंगे, असहयोग उसी हदतक सफल होगा। सम्भव है कि सब लोग आत्मबलिदानके कार्यक्रम में भाग न ले सकें; किन्तु यह तो सभीको मानना चाहिए कि वाणी और कर्ममें अहिंसाका पालन करना आवश्यक है।

मुझे यह देखकर आश्चर्य होता है कि संवाददाताने अपने आवरक पत्रमें धारवाड़की हुल्लड़बाजी और जलियाँवाला बागके हत्याकांडका उल्लेख साथ-साथ किया है। एक जगह बिना किसी उत्तेजनाके निर्दयतापूर्वक, योजना बनाकर निर्दोष लोगोंकी हत्या की गई थी और दूसरी जगह “युवकोंकी एक उपद्रवी भीड़” के द्वारा कल्पित या वास्तविक बुराईसे उत्तेजित हो जाने के कारण विचारहीन प्रदर्शन किया गया था। पत्रलेखकन इन दोनों कृत्योंकी तुलना करते समय अपनी विवेक बुद्धिके असंतुलित होनेका परिचय दिया है। दोनों ही कृत्य निन्दनीय हैं। किन्तु धारवाड़के लड़कोंके कार्यक्रम और अमृतसर में डायरकी जघन्य करतूत में इतना अन्तर है जितना किसीपर मामूली चोट करने और उसे नेस्तनाबूद कर देनेके प्रयत्नमें है।

[अंग्रेजी से]
यंग इंडिया, १-१२-१९२०