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४८. पत्र: सरलादेवी चौधरानीको

४ दिसम्बर, १९२०

...ऐसा नहीं हो सकता मैं तुम्हें जान-बूझकर पत्र न लिखूँ। पर तुम्हें धीरज और विश्वास रखना सीखना चाहिए। मुझपर महात्मा होनेका आरोप मत लगाओ और न अपनेको अधम कहकर अपनी महिमा बढ़ाओ। हर आदमीको अपनी सीमाएँ स्वीकार करनी चाहिए। प्रेमियों और मित्रोंके बीच न कोई अधम होता है और न महात्मा। हम सब समान हैं, लेकिन बराबरीके पुरुषों और स्त्रियोंमें कोई बुद्धिमान होता है और कोई निर्बुद्धि और सच तो यह है कि किसे मालूम कि कौन अधिक बुद्धिमान है? तुम मुझे इस भ्रममें रहने दो कि मैं तुमसे अधिक बुद्धिमान हूँ और इसलिए तुम्हें सिखाने-समझाने के लिए योग्य हूँ। लेकिन बहुत बार ऐसा हुआ है कि शिष्य ही गुरु बन गया। गोरख मछन्दरके गुरु बन गये थे। और मैं तो ईश्वरसे कामना करता हूँ कि वह मुझे इतनी बुद्धि दे कि तुम्हें सिखाने-समझाने में मैं खुद भी तुमसे कुछ सीखूँ। सच मानो, अगर तुम्हें यह पद मिल जाये, तो इसमें मुझे कोई आपत्ति न होगी। सच तो यह है कि अगर मैं तुम्हें अपने से श्रेष्ठ बना सकूँ, तो मैं अपनेको सच्चा गुरु मानूँगा। जो भी हो, यही वह विश्वास है, जिसने मुझे तुमसे जोड़ रखा है। इसीलिए मैं भगवान से प्रार्थना करता रहता हूँ कि वह तुम्हारे मनमें विनय और पश्चात्तापकी भावना उत्पन्न करे।

सस्नेह,

तुम्हारा
एल० जी०[१]

[अंग्रेजीसे]

महादेव देसाईकी हस्तलिखित डायरी से।

सौजन्य: नारायण देसाई

 
  1. “लॉ-गिवर”; सरलादेवीको लिखे पत्रों में गांधीजीने अपने लिए इन शब्दोंका उपयोग किया है। देखिए खण्ड १८, पृष्ठ २०९-१०।