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१५. भेंट : 'स्टेट्समैन' के प्रतिनिधिको

कलकत्ता
१० नवम्बर, १८९६

[प्रतिनिधि :] मिस्टर गांधी, दक्षिण आफ्रिकामें भारतीयोंको क्या कष्ट हैं, यह आप मुझे थोड़े-से शब्दोंमें बतायेंगे?

[गांधीजी :] दक्षिण आफ्रिकाके बहुत-से भागों—नेटाल, केप ऑफ गुड होप, दक्षिण आफ्रिकी गणराज्य तथा ऑरेंज फ्री स्टेटमें और अन्यत्र भारतीय बसे हए हैं। और इन सब जगहोंमें वे नागरिकताके मामूली अधिकारोंसे कम-ज्यादा मात्रामें वंचित हैं। परन्तु मैं विशेष रूपसे नेटालके भारतीयोंका प्रतिनिधित्व करता हूँ, जिनकी संख्या वहाँकी लगभग पाँच लाखकी आबादीमें से कोई पचास हजार है। वहाँ जानेवाले सबसे पहले भारतीय तो अलबत्ता मजदूर ही थे, जो मद्रास और बंगालसे वहाँके विभिन्न बागानोंमें काम करने के लिए निश्चित अवधि और शर्तोंपर ले जाये गये थे। इनमें से अधिकांश हिन्दू और कुछ मुसलमान भी थे। शर्तकी अवधि उन्होंने पूरी की और उससे मुक्त होने पर उन्होंने उसी देशमें बस जाना पसन्द किया। क्योंकि, उन्होंने देखा कि बाजारमें बिकनेवाले फलों और सब्जियोंके पैदा करने में तथा सब्जीके फेरीवालोंकी हैसियतसे वे तीनसे चार पौंड मासिक तक वहाँ पैदा कर सकते हैं। इस तरह, इस समय ऐसे स्वतंत्र भारतीयोंकी संख्या उपनिवेशमें कोई तीस हजारके करीब है। इनके अलावा कोई सोलह हजार शर्तबन्द मजदूर अपनी शर्तोको पूरा कर रहे हैं। फिर, बम्बईकी ओरसे आये हुए एक वर्ग के भारतीय वहाँ और हैं, जिनकी संख्या लगभग पाँच हजार है। ये मुसलमान हैं और व्यापारके आकर्षणसे उस देशमें पहुँच गये हैं। इनमें से कुछ अच्छी हालतमें हैं। बहुतोंके पास जमीनजायदादें हैं और दो के पास जहाज भी हैं। भारतीयोंको वहाँ बसे बीस वर्ष और इससे अधिक भी हो गये हैं। और चूंकि कामकाज अच्छा चलता है इसलिए वे सुखी और सन्तुष्ट हैं।

[प्र॰] तो फिर, मिस्टर गांधी, इस वर्तमान तकलीफका कारण क्या है?

[गां॰] सिर्फ व्यापार-सम्बन्धी ईर्ष्या। उपनिवेशकी इच्छा थी कि वह भारतीयोंके परिश्रमसे पूरा लाभ उठाये, क्योंकि वहाँके देशी आदमी खेतोंपर काम करना नहीं चाहते और यूरोपीय तो काम कर ही नहीं मकते। परन्तु ज्यों ही भारतीय लोग व्यापारी बनकर यूरोपीयोंसे होड़ करने लगे त्यों ही सुसंगठित अत्याचारकी पद्धतिसे उनके मार्गमें रुकावटें डाली जाने लगीं, उनका विरोध होने लगा और उनका तरह-तरहसे अपमान शुरू हुआ। और धीरे-धीरे द्वेष और अत्याचारकी यह भावना

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