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१७. भेंट : 'इंग्लिशमैन' के प्रतिनिधिको

[१३ नवम्बर, १८९६ या उसके पूर्व][१]

सच तो यह है कि जबसे भारतीयोंने दक्षिण आफ्रिकामें पहले-पहल कदम रखा तभीसे उनके प्रति सदा एक प्रकारका विरोध-भाव वहाँ रहा है। परन्तु यह विरोध स्पष्ट रूपसे तब प्रकट होने लगा जब हमारे लोगोंने व्यापार करना शुरू किया। और तभीसे इस विरोधने तरह-तरहकी कानूनी बन्दिशोंका रूप धारण करना शुरू किया।[२]

[प्र॰] तो आपने जिन कष्टोंके बारेमें कहा वे सब व्यापारी ईर्ष्याके परिणाम हैं और स्वार्थके कारण हैं?

[उ॰] बिलकुल यही। सारी बातकी जड़ यही है। उपनिवेशवासी हमको निकलवा देना चाहते हैं, क्योंकि उन्हें हमारे व्यापारियोंका उनकी होड़में खड़ा रहना सहन नहीं होता।

[प्र॰] क्या यह होड़ उचित है? मेरा मतलब यह है कि क्या यह होड़ खुली है और न्यायके आधारपर हो रही है?

[उ॰] हाँ, यह होड़ बिलकुल खुली है और भारतीयोंके द्वारा सम्पूर्णतया न्यायपूर्वक और उचित रीतिसे हो रही है। अगर व्यापारकी सामान्य पद्धतिके बारेमें मैं एक-दो शब्द कह दूं तो शायद बात अधिक साफ हो जायेगी। अधिकतर भारतीय, जो इस व्यापारमें लगे हुए है, अपना माल थोक व्यापार करनेवाली यूरोपीय पेढ़ियोंसे खरीदते हैं। और फिर देहातोंमें फेरी लगा-लगाकर बेचने के लिए निकल जाते हैं। बल्कि मैं तो खास तौरसे नेटालके बारेमें प्रत्यक्ष अनुभव और निजी जानकारीके आधारपर बता सकता हूँ कि नेटालका सम्पूर्ण उपनिवेश अपनी जरूरतोंके लिए लगभग पूर्णतया इन्हीं फेरीवाले व्यापारियोंपर निर्भर करता है। जैसाकि आप जानते हैं, उस भागमें दूकानें बहुत थोड़ी है—कमसे-कम शहरोंसे तो दूर हैं ही। और इस कमीकी पूर्ति करके भारतीय ईमानदारीसे अपनी रोजी कमा लेते हैं। कहा जाता है कि ये भारतीय छोटे यरोपीय व्यापारियोंकी जड़ें उखाड़ रहे हैं। कुछ हदतक यह सच है। परन्तु इसमें दोष तो खुद यूरोपीय व्यापारियोंका ही है। वे अपनी दूकानपर ही बैठे रहते हैं और ग्राहकोंको उनके पास जाना पड़ता है। इसलिए अगर कोई भारतीय अपने ग्राहकोंकी जरूरतकी चीजें लेकर ठेठ उनके पास पहुंच जाता है—और इसमें उसे कम तकलीफ नहीं उठानी पड़ती—तो उसकी चीजें तुरन्त

  1. गांधीजी इसी तारीख को कलकत्तासे बम्बईके लिए रवाना हो गए थे।
  2. प्रश्नकर्ता ने पूछा था कि भारतीयों के प्रति अफ्रिकी गोरोंका विरोध भाव पहले पहल कब प्रकट होने लगा।