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दक्षिण आफ्रिकावासी ब्रिटिश भारतीयोंकी कष्ट-गाथा

के खिलाफ भेद-भाव गहरा पैठा हआ है, जिसका कारण भारतीयोंकी शिकायतोंके प्रति भारत और ब्रिटेनकी सरकारोंकी उदासीनता है। मार-पीटके तमाम मामलोंका आम तौरपर हम कोई खयाल नहीं करते। जहाँतक हो सकता है, हम 'एक मील कहा तो दो मील जाने' के सिद्धान्तका पालन करते हैं। सहिष्णुता, सच्चे और निष्कपट रूपमें, दक्षिण आफ्रिकावासी और, खास तौरसे, नेटालवासी भारतीयोंका चिह्न है। परन्तु, मैं यह कह दूँ कि हम इस नीतिका पालन परोपकारके हेतुसे नहीं, शुद्ध स्वार्थकी दृष्टिसे करते हैं। हमने अपने कष्टमय अनुभवोंसे समझ लिया है कि अपराधियोंको न्यायालयमें ले जाना बहत खर्चीला और परेशानीका काम है। फिर, उसका परिणाम अक्सर हमारी अपेक्षाओंसे उलटा होता है। अपराधीको या तो चेतावनी देकर छोड़ दिया जाता है, अथवा "पाँच शिलिंग या एक दिन" के जुर्मानेकी सजा दे दी जाती है। कठघरेसे निकलने के बाद वही आदमी और भी ज्यादा डराने-धमकाने का रुख अख्तियार कर लेता है और शिकायत करनेवाले को बड़ी अड़चनकी स्थिति में डाल देता है। इस तरहके कारनामे अखबारोंमें प्रकाशित होते हैं, तो दूसरे लोगोंको भी वैसी ही हरकतें करने की प्रेरणा मिलती है। इसलिए नेटालमें हम आम तौरपर जनताके सामने इन बातोंका जिक्र भी नहीं करते।

इस तरहका गहरा जमा हुआ द्वेष-भाव सारे दक्षिण आफ्रिकामें भारतीयोंके लिए विशेष रूपसे बने कानूनोंमें उतारा गया है। इन कानूनोंका लक्ष्य वहाँके भारतीय समाजको नीचे गिराना है। नेटालका महान्यायवादी भारतीयोंको सदैव "लकड़हारे और पनिहारे" बनाकर रखना चाहता है। हमें दक्षिण आफ्रिकाके आदिवासियों—काफिर जातियों—के वर्गमें रखा गया है। उसने भारतीयोंकी मान-मर्यादाकी व्याख्या इन शब्दोंमें की है : "इन भारतीयोंको स्थानिक उद्योगोंके विकासके लिए मजदूर बनाकर लाया गया है; विभिन्न राज्योंमें जिस दक्षिण आफ्रिकी राष्ट्रका निर्माण किया जा रहा है, उसके अंग बन जाने के लिए नहीं।" ऑरेंज फ्री स्टेटकी नीतिको दूसरे राज्योंने अपनी नीतिका आदर्श बनाया है। और उस नीतिने, उस राज्यके ही प्रमुख पत्रके शब्दोंमें, "भारतीयोंको आफ्रिकी आदिवासियोंकी कोटिमें रखकर ही उनका वहाँ रहना असम्भव कर दिया है।" अगर भारतीय जनता सावधान न रहे तो आरेंज फ्री स्टेटने जो-कुछ किया है, उसे दूसरे राज्य भी बहुत थोड़े समयमें ही पूरा कर डालेंगे। इस समय हम एक नाजुक संकट-कालसे गुजर रहे हैं। हमें चारों ओरसे प्रतिबन्धों और जोर-जबरदस्तीके कानूनों द्वारा जकड़ रखा गया है।

अब मैं बताऊँगा कि ऊपर बताये हुए द्वेष-भावको किस तरह कानूनका ठोस रूप दिया गया है। कोई भारतीय रातको ९ बजे के बाद तबतक अपने घरसे नहीं निकल सकता जबतक कि उसके पास किसीके दस्तखतका ऐसा पत्र न हो जिससे मालूम हो कि वह किसीके निर्देशसे बाहर निकला है; या जबतक वह अपने बाहर निकलने के बारेमें ठीक-ठीक कैफियत न दे सके। यह कानून सिर्फ आदिवासियों और भारतीयोंपर लागू है। पुलिस अपने विवेकसे काम लेती है और साधारणतः उन लोगों को परेशान नहीं करती जो मेमन लोगों [बोहरों] की पोशाकमें होते हैं, क्योंकि वह