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दक्षिण अफ्रीकावासी ब्रिटिश भारतीयोंकी कष्ट-गाथा

आदमीके साथ पाशविक व्यवहार किया गया है। मालिकने कहा कि उस आदमीने उसे उत्तेजित किया था। मजिस्ट्रेटने डपटकर जवाब दिया : "आपको कानूनकी अवज्ञा करने का और इस आदमीको पशुकी तरह मारने का कोई अधिकार नहीं था। उसने मालिकको मेरे प्रस्तावपर विचार करने का मौका देने के उद्देश्यसे एक दिनके लिए सुनवाई स्थगित कर दी। मालिक झुका और उसने सहमति दे दी। इसपर संरक्षकने मझे लिखा कि जबतक मैं किसी ऐसे यूरोपीय मालिकका नाम न सुझाऊँ, जो संरक्षक को स्वीकार हो, तबतक वह तबादला करना स्वीकार नहीं करेगा। खुशीकी बात है कि उपनिवेश उदार आदमियोंसे सर्वथा विहीन नहीं है। एक स्थानिक वेज़लियन धर्मोपदेशक और सॉलिसिटरने धर्मभावसे उस आदमीकी सेवाएँ स्वीकार कर ली और इस तरह इस दुःखमय नाटकके अन्तिम दृश्यपर परदा पड़ा। संरक्षकने जो तरीका अख्तियार किया उसपर टीका-टिप्पणी व्यर्थ होगी। यह मामला तो एक नमूना-भर है, जो बताता है कि गिरमिटिया लोगोंके लिए न्याय प्राप्त करना कितना कठिन है।

हमारा निवेदन है कि संरक्षक कोई भी हो, उसके कर्तव्योंकी स्पष्ट व्याख्या होनी चाहिए, जैसेकि न्यायाधीशों, एडवोकेटों, सॉलिसिटरों आदिके कर्तव्योंकी होती है। प्रलोभनोंको टालने के लिए, उसका मन हो तो भी, उसे कुछ खास-खास काम करने का अधिकार न होना चाहिए। जरा किसी न्यायाधीशके एक ऐसे अपराधीका मेहमान बनने की कल्पना कीजिए, जिसका वह मुकदमा कर रहा हो। फिर भी, संरक्षक तो जब जायदादोंमें मजदूरोंकी हालतोंकी जाँच करने और उनकी शिकायतें सुनने जाता है, तब मालिकोंका मेहमान बन सकता है, और अक्सर बनता भी है। हमारा निवेदन है कि संरक्षक कितना भी उच्चमना क्यों न हो, यह व्यवहार सिद्धान्ततः गलत है। जैसा प्रवासियोंके एक सर्जन-सुपरिटेंडेंटने पिछले दिनों कहा था, संरक्षकके पास तुच्छसे-तुच्छ कुलीकी भी पहुँच सरलतासे होनी चाहिए, परन्तु बड़ेसेबड़े मालिककी उसके पास कोई पहुँच न हो। सम्भवतः वह नेटालका आदमी न हो। संरक्षकका एक ऐसे आयोगका सदस्य बनाया जाना भी विचित्र मालूम पड़ता है, जिसका उद्देश्य गिरमिटिया मजदूरोंके लिए अधिक कड़े कानून बनाने की सम्मति देनेके लिए भारत-सरकारको समझाना हो। जब संरक्षकको ऐसे विरोधी कर्तव्य करने पड़ते हों, तब गिरमिटिया मजदूरोंकी रक्षा कौन करेगा?

गिरमिटिया मजदूरोंके लिए अपनी सेवाओंका तबादला करा लेना सरल होना चाहिए। कुछ भारतीय बरसोंसे जेलोंमें पड़े हैं, क्योंकि वे अपने मालिकोंके पास जानेसे इनकार करते है। उनका कहना है कि उनकी शिकायतें ऐसी हैं, जिन्हें वे अपनी विचित्र परिस्थितियोंमें प्रमाणित नहीं कर सकते। एक मजिस्ट्रेट ऐसे मामलोंसे इतना आजिज़ आ गया कि वह सोचने लगा, काश! ऐसे मुकदमे मुझे करने ही न पड़ते। 'नेटाल' मयुरी' ने अपने १३ जून, १८९५ के अंकमें एक ऐसे ही मामलेकी मीमांसा इस प्रकार की है :

अगर कोई आदमी, या कुली प्रवासी भी, जिस मालिककी मजदूरी करने को प्रतिज्ञा-बद्ध है उसका काम करने की अपेक्षा जेल जाना अधिक पसन्द करता