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सम्पूर्ण गांधी वाङ् मय

वे क्रमशः तमिल या तेलुगु और हिन्दी बोलते हैं। थोड़ी संख्या व्यापारी-वर्गकी भी है। वे मुख्यतः बम्बई प्रान्तसे गये हैं। भारतीयोंके प्रति सारे दक्षिण आफ्रिकामें आम भावना द्वेषकी है। उसे समाचार-पत्र प्रोत्साहित करते हैं। कानून बनानेवाले उसे देखी-अनदेखी ही नहीं करते, बल्कि उसके प्रति अनुकूलता भी रखते हैं। आम यूरोपीय समाजकी दृष्टिमें प्रत्येक भारतीय निरपवाद रूपसे "कुली" है। वस्तु-भंडार मालिक "कुली वस्तु-भंडार मालिक हैं। भारतीय मुंशी और शिक्षक "कुली मुंशी" और "कुली शिक्षक" हैं। स्वाभाविक है कि न तो व्यापारियोंके और न अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त भारतीयोंके साथ ही किसी भी अंशमें आदरका व्यवहार किया जाता है। उस देशमें किसी भी भारतीयकी सम्पत्ति और योग्यताओंकी इसके सिवा कोई कद्र नहीं कि उनका प्रयोजन यूरोपीय उपनिवेशियोंके हितमें काम आना है। हम हैं"एशियाई गंदगी, दिल-भर कोसी जानेके लिए। हम हैं—"झूठी जबानवाले घिनौने कुली।" हम हैं—"सच्चे घुन, जो समाजके कलेजेको ही खाये जा रहे हैं।" हम हैं—"परोपजीवी, अर्ध-बर्बर एशियाई।" हम "चावल खाकर और नाकतक बुराइयोंसे भरे हुए" हैं। कानूनकी पुस्तकोंमें भारतीयोंका वर्णन "एशियाकी आदिवासी और अर्ध-बर्बर जातियों" के लोग कहकर किया गया है, जबकि सच बात यह है कि दक्षिण आफ्रिकामें आदिवासी वंशका शायद एक भी भारतीय न होगा। असमके संथाल दक्षिण आफ्रिका में उतने ही बेकार होंगे जितने कि खुद वहाँके मूल निवासी। प्रिटोरियाके व्यापारी-संघका खयाल है कि हमारा 'धर्म हमें सब स्त्रियोंको आत्मा-रहित और ईसाइयोंको स्वाभाविक शिकार मानना सिखाता है।' उसीके कथनानुसार, "दक्षिण आफ्रिकाका सारा समाज इन लोगोंकी गन्दी आदतों और अनैतिक आचारसे उत्पन्न खतरेमें पड़ गया है। फिर भी, सच बात यह है कि दक्षिण आफ्रिकाके भारतीयोंमें कुष्ठ-रोगका शिकार एक भी व्यक्ति नहीं हुआ। और प्रिटोरियाके डॉक्टर वील का खयाल है कि "निम्नतम वर्गके भारतीय निम्नतम वर्गके गोरोंकी अपेक्षा अधिक अच्छी तरह, अधिक अच्छे मकानोंमें और सफाईका अधिक खयाल करके रहते हैं।" इससे आगे भी उन्होंने दर्ज किया है कि "जब कि हर राष्ट्रके लोगोंमें से एक या अधिक व्यक्ति किसी-न-किसी समयपर संक्रामक रोगोंके अस्पतालमें रहे हैं, तब भारतीय वहाँ एक भी नहीं रहा।"

दक्षिण आफ्रिकाके अधिकतर हिस्सोंमें, जबतक हमारे पास अपने मालिकोंसे प्राप्त परवाने न हों, हम रातमें ९ बजे के बाद अपने घरोंसे बाहर नहीं निकल सकते। हाँ, मेमन लोगोंकी पोशाक पहननेवाले भारतीयोंको अपवाद जरूर माना जाता है। होटलोंके दरवाजे हमारे लिए बन्द रखे जाते हैं। हम बिना छेड़छाड़ सहे ट्रामगाड़ियों का उपयोग नहीं कर सकते। घोड़ागाड़ियाँ तो हमारे लिए हैं ही नहीं। ट्रान्सवालमें बार्बर्टन और प्रिटोरिया के बीच, और जब जोहानिसबर्ग तथा चार्ल्सटाउनके बीच रेलसम्बन्ध नहीं था तब वहाँ भी, भारतीयोंको घोडागाडीके अन्दर बैठने नहीं दिया जाता था। अब भी नहीं बैठने दिया जाता। उन्हें गाड़ीवानके पास बैठने के लिए बाध्य किया जाता था, जो अब भी होता है। ट्रान्सवालमें, जहाँ बहुत कड़ी ठंड पड़ती है,