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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

एलडोराडो [सोनेसे भरा हुआ कल्पित देश] है। वहाँ ५,००० से अधिक भारतीय हैं। उनमें से अनेक लोग व्यापारी और वस्तु-भण्डारोंके मालिक हैं। शेष फेरीवाले, हजूरिये और घरेलू नौकर हैं। ब्रिटिश सरकार और ट्रान्सवाल-सरकारके बीच एक समझौता[१] है। उसके द्वारा "देशी लोगोंके अलावा सब व्यक्तियोंके" व्यापारिक तथा साम्पत्तिक अधिकार सुरक्षित हैं। उसके मातहत १८८५ तक भारतीय स्वतन्त्रतापूर्वक व्यापार भी करते रहे। परन्तु उस वर्ष ब्रिटिश सरकारके साथ कुछ पत्र-व्यवहार करने के बाद ट्रान्सवालकी संसदने एक कानून बना लिया। उससे भारतीयोंका कुछ निर्दिष्ट बस्तियोंको छोड़कर शेष सब जगह व्यापार करने और जमीन-जायदाद खरीदनेका अधिकार छिन गया। साथ ही, उस उपनिवेशमें बसने के इच्छुक हर भारतीयपर तीन पौंडका पंजीकरण-शुल्क भी लाद दिया गया। इस विषयमें लम्बी लिखा-पढ़ी हुई। उसके फलस्वरूप प्रश्नको पंचके हाथों सौंप दिया गया। इसके सारे लिए मुझे फिर जिज्ञासुओंसे 'हरी पुस्तिका' पढ़ने का अनुरोध करना होगा। पंचका फैसला वास्तविक दृष्टिसे भारतीयोंके विरुद्ध रहा। इसलिए परम माननीय उपनिवेशमन्त्रीके पास एक प्रार्थनापत्र भेजा गया। परिणाम यह हुआ कि पंचका फैसला मंजूर कर लिया गया है, हालांकि यह भी पूरी तरह मान लिया गया है कि भारतीयों की शिकायत सर्वथा उचित है। ट्रान्सवालमें परवानोंकी प्रणाली बड़े क्रूर रूपमें प्रचलित है। दक्षिण आफ्रिकाके दूसरे हिस्सोंमें तो पहले और दूसरे दर्जे के यात्रियोंकी स्थिति असह्य बनानेवाले रेलवेके कर्मचारी ही है, किन्तु ट्रान्सवालमें लोग इससे एक कदम और आगे बढ़ गये है। वहाँ कानून ही भारतीयोंको पहले और दूसरे दर्जेमें यात्रा करने से वर्जित करता है। उन्हें उनकी हैसियतका खयाल किये बिना आफ्रिकाके आदिवासियोंके साथ एक ही डिब्बेमें ठूँस दिया जाता है। सोनेकी खानोंके कानूनोंके अनुसार भारतीयोंका देशी सोना खरीदना अपराध करार दिया गया है। और यदि ट्रान्सवाल-सरकारको स्वेच्छानुसार चलने दिया गया तो वह भारतीयोंके साथ केवल माल-असबाबका-सा व्यवहार करती हुई उन्हें सैनिक सेवाएँ करने के लिए भी बाध्य कर देगी। बात स्पष्टतः दानवी है, क्योंकि, जैसाकि लन्दन 'टाइम्स'ने कहा है, "हो सकता है, अब हम ब्रिटिश भारतीयोंकी सेनाको ट्रान्सवालकी संगीनों द्वारा ब्रिटिश सेनाओंकी संगीनों की और खदेड़े जाते देखें।" दक्षिण आफ्रिकाके दूसरे डच गणराज्य ऑरेंज फ्री स्टेटने तो भारतीयोंके प्रति द्वेष दिखाने में शेष। मात दे दी है। उसके प्रमुख पत्रके शब्दोंमें कहा जाये तो उसने "ब्रिटिश भारतीयोंको काफिरोंके वर्ग में रखकर उनका रहना ही असम्भव कर दिया है।" वह भारतीयोंको न केवल व्यापार तथा खेती करने और जमीन-जायदाद खरीदने का अधिकार देनेसे इनकार करता है, बल्कि विशेष अपमानजनक परिस्थितियोंके परे वहाँ रहने का अधिकार भी नहीं देता।

ऐसी है, बहुत संक्षेपमें, दक्षिण आफ्रिकाके विभिन्न राज्योंमें रहनेवाले भारतीयोंकी स्थिति। उपर्युक्त तमाम राज्योंमें जिन भारतीयोंसे इतना द्वेष किया जाता है, उनको

  1. सन् १८८४ का लंदन समझौता।